भगवान शिव और त्रिपुरासुर का महाप्रलयंकारी युद्ध

भगवान कार्तिकेय जी द्वारा तारकासुर के वध उपरांत उसके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्ष ने कई हज़ार वर्षों तक ब्रह्मा जी प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया, तदन्तर महायशस्वी ब्रह्माजी उनके तपसे सन्तुष्ट हो गये और उन्हें वर देनेके लिये प्रकट हुए॥ ब्रह्माजी बोले-हे महादैत्यो! मैं तुम लोगों के तपसे प्रसन्न हो गया हूँ। , जो तुमलोगोंका अभीष्ट वर हो, उसे कहो॥ दैत्य बोले-हे देवेश! यदि आप प्रसन्न हैं, तो हमें सब प्राणियों में सभी से अवद्य कर दें, हमें जरा, रोग एवं मृत्यु आदि कभी भी प्राप्त न हों। हमलोग तीनों लोकों में अन्य सभी प्राणियोंको मार सकें। दैत्यों की यह बात सुनकर ब्रह्माजी बोले-हे असुरो! पूर्ण अमरत्व किसी को नहीं मिल सकता, इसलिये इस वर का आग्रह मत करो और अन्य वर माग लो, भगवान्‌ शंकर तथा श्रीहरि के अतिरिक्त इस जगत कोई भी प्राणी अजर-अमर नहीं हो सकता दैत्य बोले-हे भगवन्‌! हम लोगपराक्रमशील हैं, किंतु हमारे पास कोई ऐसा स्थान नहीं है, जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सके और वहाँ हम सुख से निवास कर सकें। अतः आप ऐसे वी नगरोंका निर्माण कराकर हमें प्रदान कीजिये, जो अद्भुत, सभी सम्पत्तियों से परिपूर्ण और जिसका अतिक्रमण देवता भी न कर पाएँ आपकी कृपा से इन तीनों पुरो में स्थित होकर हम पृथ्वी पर विचरण करेंगे । इस सुवर्णमय पुरों को विश्वकर्मा बनायें। हे ब्रह्मन! जब मध्याह्न काल में अभिजित मुहूर्त हो और बादलों पर स्थित होकर ये तीनों पुर क्रमशः एक के ऊपर एक रहते हुए लोगों की दृष्टिसे ओझल रहें | फिर जब पुष्कर और आवर्त नामक कालमेघ वर्षा कर रहे हों, उस समय एक हजार वर्ष के उपरान्त हमलोग परस्पर मिलेंगे और ये तीनों पुर भी उसी समय एक स्थान पर स्थित हो जायंगे, इसमें सन्देह नहीं है। हमलोगों द्वारा धर्मका अतिक्रमण हो जानेपर कोई देवता, जिसमें सभी देवों का निवास हो, वह सम्पूर्ण युद्ध सामग्री से युक्त होकर असम्भव रथपर बैठकर एक ही असंभव बाण से हमारे नगरों का भेदन करे। उन दैत्यों ने वर मांगते हुए मन में यह विचार किया था के शिव जी तो किसी से द्वेष नहीं करते। वे सदा हमलोगों के वन्द्य, पूज्य तथा अभिवादनके योग्य हैं, तो फिर वे हम लोगों के पुरों को कैसे जला सकते हैं, उन जैसा दूसरा पृथ्वी पर दुर्लभ है, उनका यह वचन सुनकर सृष्टि ब्रह्मा जी ने शिवजीका स्मरण करते हुए उनसे कहा– ऐसा ही होगा उसके बाद उन्होंने मय को आज्ञा दी कि तुम सोने, चाँदी और लोहे के तीन नगरोंका निर्माण कर दो।तदान्तर वर प्रदान कर ब्रह्माजी अपने धाम को चले गये॥ तीनों पुरोंको प्राप्तकर वे तारकासुर के पुत्र उनमें प्रविष्ट हुए और सभी प्रकारके सुखोंका भोग करने लगे॥ सुखपूर्वक उत्तम राज्य करते हुए उन राक्षस्रों का वहाँ निवास करते हुए बहुत लम्बा काल व्यतीत हो गया तब उनके तेजसे दग्ध हुए इन्द्रादि देवता दुखी हो परस्पर ब्रह्माजी की शरणमें गये॥ ३॥ वे बोले-हे विधाता! तारक पुत्रों से सभी देवता अत्यधिक पीडित किये जा रहे हैं। इसलिये हे ब्रह्मन्‌ हमलोग दुखी होकर आपकी शरणमें आये हैं; आप उनके वध का कोई उपाय कीजिये, जिससे हमलोग सुखी हो जायँ॥ देवगणों के इस प्रकार कहने पर ब्रह्माजी बोले–हे देवताओ! आप लोग दैत्यों से बिलकुल मत डरिये, मैं उनके वध का उपाय बता रहा हूँ; शिवजी कल्याण करेंगे। मैंने ही इन दैत्यको बढ़ाया है, अतः मेरे हाथों इसका वध होना उचित नहीं है, इन्द्रसहित सभी देवता शिवजी से प्रार्थना करें। यदि वे प्रसन्न हो जाय, तो आप लोगों के कार्य को पूर्ण करेंगे तब ब्रह्माजी की बात सुनकर इन्द्रसहित सभी देवता दुखी होकर वहाँ गये, जहाँ शिवजी थे। वहाँ सबने हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति से शंकर जी की स्तुति की उसके उपरांत देवता बोले–हे महादेव! हे भगवन्‌! इन्द्रसहित सभी देवताओं को तारकासुर के तीनों पुत्रों ने पराजित कर दिया। उन्होंने समस्त त्रैलोक्य को अपने वश में कर लिया है। उन लोगों ने सभी मुनिबरों तथा सिद्धों का विध्वंस कर दिया है और सारे जगत को तहस-नहस कर दिया है। उन तारकपुत्रों ने वेद विरुद्ध अधर्म को बढ़ावा दे रखा है॥ हे शंकर! वे तारकपुत्र सभी प्राणियों से निश्चित रूपसे अवध्य हैं,आप ऐसी नीति का निर्धारण करें, जिससे जगतूकी रक्षा हो सके॥ देवताओं का यह वचन सुनकर शिवजी ने कहा- इस समय यह त्रिपुराध्यक्ष पुण्यवान्‌ है, जिसमें पुण्य हो, उसे विद्वानो को कभी नहीं मारना चाहिये। हे देवताओ। मैं देवताओंके समस्त बड़े कष्टोंको जानता हूँ। वे दैत्य प्रबल हैं, देवता तथा असुर कोई भी उन्हें मारने में समर्थ नहीं है॥ १-२॥ युद्धमें अजेय होते हुए भी मैं जान-बूझकर किस प्रकार मित्रद्रोह का आचरण करूँ; हे देवताओ! धर्मके ज्ञाता आपलोग ही धर्मपूर्वक विचार करें कि वे दैत्य मेरे भक्त हैं, तब मैं उनका वध किस प्रकार कर सकता हूँ? हे देवताओ ! जबतक वे मुझमें भक्ति रखते हैँ, तबतक मैं उन्हें नहीं मार सकता तथापि आप लोग विष्णु जी से इस कारण को बताइये ॥ तदनन्तर ब्रह्माजी को आगे कर इद्धसहित सभी देवता शोभा सम्पन्न वैकुंठ धाम को शीघ्र गये और उन विष्णु जी से पूर्वकी भाँति अपने दुःखका कारण शीघ्र निवेदित किया।वे बोले , [हे विष्णो] आप या तो त्रिपुर का वध कीजिये , अन्यथा देवताओं को ही अकाल में मार डालिये॥ विष्णु जी उन देवताओं से बोले , जब तक उन दैत्यों में वेद के धर्म हैं, जब तक वे शंकर जी की अर्चना करते हैं और जबतक वे पवित्र कृत्य करते हैं, तबतक उनका नाश नहीं हो सकता। इसलिये अब ऐसा उपाय करना चाहिये कि वहाँसे वेद धर्म चला जाय, तब वे दैत्य लिंगार्चन त्याग देंगे, तब भगवान विष्णु ने उन दैत्यों को मोहित करने के लिए एक मुनिरूप पुरुष की उत्पत्ति की और उसी की सहायता से एक ऐसा चक्र रचा के त्रिपुर में अधर्म की प्रवृति हो गयी और वेद धर्म नष्ट हो गए , उन देवाधिदेव विष्णुजी की माया से और उनकी आज्ञा से स्वयं दरिद्रता ने त्रिपुर में प्रवेश किया॥ उन लोगों ने जिस महालक्ष्मी को तपस्या के द्वारा श्रेष्ठ देवेश्वर से प्राप्त किया था, प्रभु ब्रह्मदेव की आज्ञा से उन्हें छोड़कर वह बाहर चली गयी त्रिपुर के वैसा हो जाने पर, विष्णु जी कृतार्थ होकर देवताओं के साथ उसके चरित्र को शिवजीसे कहनेके लिये कैलास पहुँचे और वहाँ पहुँच कर उन सबने शिव जी से निवेदन किया हे शम्भो! क्षणभरमें असुरोंका वध करके हम अनन्य गति वाले देवताओंकी रक्षा कोजिये॥ २] महेश बोले–हे विष्णो! हे विधे! हे देवगणो ! आप सब त्रिपुर को नष्ट हुआ समझकर मेरे वचन को सुनें। आपलोगों ने पूर्व समय मे जो रथ, सारथी, दिव्य धनुष तथा उत्तम बाण देना स्वीकार किया था, वह सब शीघ्र उपस्थित कीजिये, तदनन्तर उनकी आज्ञासे विश्वकर्मा जी ने दिव्य तथा अत्यन्त सुन्दर रथ का निर्माण किया उसके दाहिने चक्र में सूर्य एवं बाएँ में चन्द्रमा विराजमान थे। अन्तरिक्ष उस रथका अग्रभाग हुआ और मन्दराचल रथनीड हुआ। भगवान्‌ ब्रह्मा उसके सारथि और दे ब्रह्मदैवतॐ कार उन ब्रह्मा का चाबुक था। पर्वतराज सुमेरु धनुष तथा स्वयं भुजंगराज शेषनाग उस धनुष की डोरी बने॥ भगवती सरस्वती उस धनुषका घण्टा बनीं। भगवान विष्णु को बाण तथा अग्निको उस बाणका शल्य कहा गया है। ! चारों वेद उस रथके घोड़े कहे गये हैं । तदन्तर भगवान शंकर उस रथ पर आरूढ़ हुए , उसके बाद ब्रह्माजी स्वयं उस श्रेष्ठ रथपर सवार हो शिवकी आज्ञासे उन घोड़ोंको तेजीसे हाँकने लगे और दैत्यों के सम्पूर्ण त्रिपुर को दग्ध करने के लिए उद्यत हुए। उस रथ के शीर्ष स्थान पर स्थित हो वे धनुष को चढ़ाकर उस पर उत्तम बाण संधान कर निश्चल हो सौ हजार वर्ष पर्यन्त वहाँ स्थित रहे । उस समय वे गणेशजी उन शिवजी के अंगूठे पर स्थिर हो निरन्तर उन्हें पीडित करने लगे, जिससे उनके लक्ष्य में त्रिपुर दिखायी न पड़े॥ तब धनुष-बाणधारी शंकर ने यह आकाशवाणी सुनी। हे जगदीश!! जबतक आप इन गणेशजी का पूजन नहीं करेंगे, तबतक आप त्रिपुरका नाश नहीं कर सकेंगे॥ तदनन्तर यह वचन सुनकर सदाशि वने भद्रकाली को बुलाकर गणेशजी की पूजा की॥ जब महादेवजी गणेश जी का पूजनकर स्थित हो गये, उसी समय वे तीनों पुर शीघ्र ही एक में मिल गये॥ इस प्रकार त्रिपुरके एक साथ मिल जानेपर देवताओं तथा महात्माओं को बड़ी प्रसन्नता हुई, समस्त देवगण, महर्षि एवं सिद्धगण महादेवजीकी स्तुति करते हुए उनकी जय-जयकार करने लगे॥ इसके बाद जगत्पति ब्रह्मा तथा विष्णुने कहा– हे महेश्वर! ! जबतक ये पुर एक-दूसरे से अलग नहीं होते, तब तक आप बाण छोड़िए और त्रिपुरको भस्म कर दीजिये॥ तब शंकरजी ने धनुष की डोरी चढ़ाकर उसपर बाण रखकर त्रिपुरसंहारके लिये महा पाशुपतास्त्रका ध्यान किय और उन असुरों को अपना नाम सुनाकर तथा उन्हें ललकारते हुए बाण छोड़ा॥ पापनाशक, तथा तीव्रगामी उस विष्णुमय बाण ने त्रिपुर में रहने वाले उन तीनों दैत्यों को दग्ध कर दिया॥ भस्म हुए वे तीनों पुर पृथ्वी पर एक साथ ही गिर पड़े और जले हुए वे पुर राख के रूप में हो गये। उस समय भी जो दैत्य बान्धवों सहित शिवपूजनमें तत्पर थे, वे सब शिवपूजा के प्रभाव से गणों के अधिपति हो गये