भीष्म ने अपनी मृत्यु से पहले कर्ण को कौनसा रहस्य बताया था

कुरुक्षेत्र युद्ध आरंभ होने से पूर्व पितामह भीष्म और कर्ण में इतनी कटुता उत्पन्न हो गयी थी के कर्ण ने यहाँ तक घोषित कर दिया था के जब तक भीष्म अपीतमह युद्ध भूमि में रहेंगे और जब तक वो सेनापति है , उस समय तक मैं युद्ध करने नहीं उतरूँगा , और जब भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर लेटे अपनी अंतिम घड़ी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, तो एक – एक कर वहाँ उनसे मिले कौरव और पांडव पक्ष के समस्त योद्धा पहुंचे , वहाँ सब से अंत में कर्ण आए थे , जिनको एक दूसरे को देखना भी स्वीकृत नहीं था उन दोनों में अंतिम समय क्या हुआ, आइये जानते हैं महाभारत के भीष्म पर्व अध्याय 122 के अनुसार भीष्म जी को रथ से गिराया गया सुनकर राधानंदन कर्ण के मन में कुछ भय समा गया। वह बड़ी उतावली के साथ उनके पास आया। उस समय उसने देखा, महात्मा भीष्म शरशय्या पर सो रहे हैं, भीष्म जी के नेत्र बंद थे। उन्हें देखकर कर्ण की आखों में आंसू छलक आये और वहाँ वह बोला – कुरुश्रेष्ठ! मैं वही राधापुत्र कर्ण हूं, जो सदा आपकी आंखों में गड़ा रहता था और जिसे आप सर्वत्र द्वेषदृष्टि से देखते थे।’ कर्ण ने यह बात उनसे कही। उसकी बात सुनकर भीष्म ने धीरे से आंखें खोलकर देखा और उस स्थान को एकांत देख पहरेदारों को दूर हटाकर एक हाथ से कर्ण का प्रेमपूर्वक आलिंगन किया, तत्पश्चात उन्होंने इस प्रकार कहा- ‘आओ, , कर्ण! तुम सदा मुझसे लाग-डांट रखते रहे। सदा मेरे साथ स्पर्धा करते रहे। आज यदि तुम मेरे पास नहीं आते तो निश्चय ही तुम्हारा कल्यारण नहीं होता। वत्स! तुम राधा के नहीं, कुंती के पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं हैं। ! तुम सूर्य के पुत्र हो। मैंने नारद जी से तुम्हारा परिचय प्राप्त किया था। तात! श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास से भी तुम्हारे जन्म का वृत्तांत ज्ञात हुआ था और जो कुछ ज्ञात हुआ, वह सत्य है। इसमें संदेह नहीं हैं। तुम्हारे प्रति मेरे मन में द्वेष नहीं है; यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। वीर! मैं कभी-कभी तुमसे जो कठोर वचन बोल दिया करता था, उसका उद्देश्य था, तुम्हारे उत्साह और तेज को नष्ट करना; क्योंकि सूतनंदन! तुम राजा दुर्योधन के उकसाने से अकारण ही समस्त पाण्डवों पर बहुत बार आक्षेप किया करते थे। तुम्हारा जन्म (कन्यावस्था में ही कुंती के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण) धर्मलोप से हुआ है; इसीलिये नीच पुरुषों के आश्रय से तुम्हारी बुद्धि इस प्रकार ईर्ष्यावश गुणवान पाण्डवों से भी द्वेष रखने वाली हो गयी है और इसी के कारण कौरव-सभा में मैंने तुम्हें अनेक बार कटुवचन सुनाये हैं। मैं जानता हूं, तुम्हारा पराक्रम समरभूमि में शत्रुओं के लिये दु:सह है। तुम ब्राह्मण-भक्त‍, शूरवीर तथा दान में उत्तम निष्ठा रखने वाले हो। वीर! मनुष्यों में तुम्हारे समान कोई नहीं है। मैं सदा अपने कुल में फूट पड़ने के डर से तुम्हें कटुवचन सुनाता रहा। बाण चलाने, दिव्यास्त्रों का संधान करने, फुर्ती दिखाने तथा अस्त्र-बल में तुम अर्जुन तथा महात्मा श्रीकृष्ण समान हो। कर्ण! तुमने कुरुराज दुर्योधन के लिये कन्या‍ लाने के निमित्त अकेले काशीपुर में जाकर केवल धनुष की सहायता से वहाँ आये हुए समस्त राजाओं को युद्ध में परास्त कर दिया था। युद्ध की श्लाघा रखने वाले वीर! यद्यपि राजा जरासंघ दुर्जय एवं बलवान् था, तथापि वह रणभूमि में तुम्हारी समानता न कर सका। तुम ब्राह्मण भक्त, धैर्यपूर्वक युद्ध करने वाले तथा तेज और बल से सम्पन्न हो। संग्राम-भूमि में देवकुमारों के समान जान पड़ते हो और प्रत्येक युद्ध में मनुष्यों से अधिक पराक्रमी हो। मैंने पहले जो तुम्हारे प्रति क्रोध किया था, वह अब दूर हो गया है: क्योंकि प्रारब्ध के विधान को कोई पुरुषार्थ द्वारा नहीं टाल सकता। शुत्रुसूदन! मेरी मृत्यु के द्वारा ही यह वैर की आग बुझ जाय और भूमण्डल के समस्त नरेश अब दु:ख शोक से रहित एवं निर्भय हो जायँ।’ कर्ण ने कहा- ‘महाबाहो! भीष्म! आप जो कुछ कह रहे हैं, उसे मैं भी जानता हूँ। यह सब ठीक है, इसमें संशय नहीं है। वास्तव में मैं कुंती का ही पुत्र हूं, सूतपुत्र नहीं हूँ। परंतु माता कुंती ने तो मुझे पानी में बहा दिया और सूत ने मुझे पाल-पोषकर बड़ा किया। पूर्वकाल से ही मैं दुर्योधन के साथ स्नेह करता आया हूँ और प्रसन्नतापूर्वक रहा हूँ। दुर्योधन से मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि तुम्हारा जो-जो दुष्कर कार्य होगा, वह सब मैं पूरा करूंगा। दुर्योधन का ऐश्वर्य भोगकर मैं उसे निष्फल नहीं कर सकता। जैसे वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण पाण्डुपुत्र अर्जुन की सहायता के लिये दृ‍ढ़ प्रतिज्ञ हैं, उसी प्रकार मेरे धन, शरीर, स्त्री, पुत्र तथा यश सब कुछ दुर्योधन के लिये निछावर हैं। यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुरुनंदन भीष्म! मैंने दुर्योधन का आश्रय लेकर पाण्डवों का क्रोध सदा इसलिये बढ़ाया है कि यह क्षत्रिय-जाति रोगों का शिकार होकर न मरे (युद्ध में वीर गति प्राप्त करे)। यह युद्ध अवश्यम्भावी है। इसे कोई टाल नहीं सकता। भला, दैव को पुरुषार्थ के द्वारा कौन मिटा सकता है। पितामह! आपने भी तो ऐसे निमित्त (लक्षण) देखे थे, जो भूमण्डल के विनाश की सूचना देने वाले थे। आपने कौरव-सभा में उनका वर्णन भी किया था। पाण्डवों तथा भगवान् वासुदेव को मैं सब प्रकार से जानता हूं, वे दूसरे पुरुषों के लिये सर्वथा अजेय हैं, तथापि मैं उनसे युद्ध करने का उत्साह रखता हूँ और मेरे मन का यह निश्चित विश्वास है कि मैं युद्ध में पाण्डवों को जीत लूंगा। पाण्डवों के साथ हम लोगों का यह वैर अत्यंत भयंकर हो गया है। अब इसे दूर नहीं किया जा सकता। मैं अपने धर्म के अनुसार प्रसन्नचित्त होकर अर्जुन के साथ युद्ध करूंगा। तात! मैं युद्ध के लिये निश्चय कर चुका हूँ। वीर! मेरा विचार है कि आपकी आज्ञा लेकर युद्ध करूं। अत: आप मुझे इसके लिये आज्ञा देने की कृपा करें। मैंने क्रोध के आवेग से अथवा चपलता के कारण यहाँ जो कुछ आपके प्रति कटुवचन कहा हो या आपके प्रतिकूल आचरण किया हो, वह सब आप कृपापूर्वक क्षमा कर दें।’ भीष्म ने कहा- ‘कर्ण! यदि यह भयंकर वैर अब नहीं छोड़ा जा सकता तो मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से युद्ध करो। दीनता और क्रोध छोड़कर अपनी शक्ति और उत्साह के अनुसार सत्पुरूषों के आचार में स्थिर रहकर युद्ध करो। तुम रणक्षेत्र में पराक्रम कर चुके हो और आचारवान तो हो ही। कर्ण! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त करो। धनंजय के हाथ से मारे जाने पर तुम्हें क्षत्रिय धर्म के पालन से प्राप्त होने वाले लोकों की उपलब्धि होगी। तुम अभिमानशून्य होकर बल और पराक्रम का सहारा ले युद्ध करो, क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्या‍णकारी साधन नहीं है। कर्ण! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। मैंने कौरवों और पाण्डवों में शांति स्थापित करने के लिये दीर्घकाल तक महान प्रयत्न किया था; किंतु मैं उसमें कृतकार्य न हो सका।’ गंगानंदन भीष्म के एसा कहने पर राधानंदन कर्ण उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले रथ पर आरूढ़ हो आपके पुत्र दुर्योधन के पास चला गया, जय श्री कृष्ण