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बर्बरीक की अनसुनी कहानी | Was Barbarik the most powerful warrior of Mahabharata ?
आखिर कौन थे बर्बरीक? कितने शक्तिशाली थे वे, और क्यों कुछ लोग उन्हें महाभारत का सबसे शक्तिशाली योद्धा मानते हैं? क्यों उनका वर्णन हमें महाभारत में नहीं मिलता? कैसे वे बर्बरीक से खाटू श्याम बने? उनसे जुड़े हर एक रहस्य और उनकी अनसुनी कहानी जानने के लिए इस लेख के अंत तक बने रहें
Table of Contents
बर्बरीक का जन्म कैसे हुआ
बर्बरीक का वर्णन महाभारत में नहीं किया गया, परंतु स्कन्द पुराण में उनके बारे में विस्तार से जानकारी है। स्कन्द पुराण महेश्वर-कुमारिका खंड अध्याय 45 के अनुसार, भीम पुत्र घटोत्कच का विवाह मौरवी के साथ हुआ था। तदनंतर कुछ समय बीत जाने पर मौरवी के गर्भ से एक महातेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ, जो जन्म लेते ही युवावस्था को प्राप्त हो गया। उसने माता-पिता से कहा, “मैं आप दोनों को प्रणाम करता हूँ। बालक के आदिगुरु माता-पिता ही हैं। अतः आप दोनों के दिए हुए नाम को मैं ग्रहण करना चाहता हूँ।”
तब घटोत्कच ने कहा, “बेटा! तुम्हारे केश बर्बराकार (घुंघराले) हैं, इसलिए तुम्हारा नाम ‘बर्बरीक’ होगा। महाबाहो! तुम्हारे लिए जो परम कल्याणमय वस्तु है, उसको हम लोग द्वारका पुरी जाकर यदुकुलनाथ भगवान श्रीकृष्ण से पूछेंगे।”
घटोत्कच का बर्बरीक को लेकर श्रीकृष्ण के पास जाना
तदनंतर घटोत्कच अपने पुत्र को साथ ले आकाश मार्ग से द्वारका को गया। वहां यादवों की सभा में पहुँचकर उसने उग्रसेन, वसुदेव, सात्यकि, बलराम तथा श्रीकृष्ण आदि प्रधान-प्रधान यदुवीरों को प्रणाम किया। पुत्र सहित घटोत्कच को अपने चरणों में पड़ा देख भगवान श्रीकृष्ण ने उसे और उसके पुत्र को भी उठाकर छाती से लगा लिया और आशीर्वाद देकर अपने समीप बिठाकर उनसे पूछा, “हे राक्षसश्रेष्ठ! बतलाओ, तुम्हें सब ओर से कुशल तो है न? यहाँ किसलिए तुम्हारा आगमन हुआ है?”
घटोत्कच बोला, “देव! आपके प्रसाद से मुझे सब ओर से कुशल ही है। आपकी बताई हुई स्त्री मौर्वा के गर्भ से मेरे इस पुत्र का जन्म हुआ है। यह आपसे कुछ प्रश्न पूछेगा; उसे सुनिए। इसीलिए मैं यहाँ आया हूँ।”
श्री भगवान ने कहा, “बेटा! तुम्हें जो-जो पूछने की इच्छा हो, सब पूछ लो।”
बर्बरीक ने पूछा, “प्रभो! मैं किस क्षेत्र में, किस देवी की, और कैसे आराधना करूँ?”
उसके इस प्रकार पूछने पर भगवान दामोदर ने कहा, “महीसागर संगम तीर्थ, जो गुप्त क्षेत्र के नाम से विख्यात है, वहाँ नारदजी द्वारा बुलायी हुई नौ दुर्गाएँ निवास करती हैं। वहाँ जाकर उन्हें आराधना करो।”
बर्बरीक की घोर तपस्या
तदनंतर बर्बरीक गुप्त क्षेत्र में रहकर प्रतिदिन कर्म के द्वारा तीनों समय देवियों की पूजा करने लगा। तीन वर्षों तक आराधना करने पर देवियाँ उस पर बहुत सन्तुष्ट हुईं और प्रत्यक्ष दर्शन देकर उन्होंने उसे ऐसा दुर्लभ बल प्रदान किया, जो तीनों लोकों में किसी के पास नहीं था। तत्पश्चात् वे बोलीं, “पुत्र! कुछ काल तक तुम यहीं निवास करो। फिर विजय नामक ब्राह्मण की संगति पाकर तुम अधिक कल्याण के भागी हो जाओगे।”
ब्राह्मण का आगमन और बर्बरीक द्वारा उनकी रक्षा
देवियों के ऐसा कहने पर बर्बरीक वहीं ठहर गया। तदनंतर मगध देश के ब्राह्मण विजय वहाँ आये। उन्होंने वहाँ देवियों की आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर देवियों ने स्वप्न में ब्राह्मण से कहा, “तुम सिद्ध माता के आगे सम्पूर्णं विद्याओं का साधन करो। बर्बरीक हमारा भक्त है, यह तुम्हारी सहायता करेगा।”
यह बात सुनकर विजय नामक वो ब्राह्मण उठा और बर्बरीक से कहा, “जब तक मैं यह साधना कर रहा हूँ, तब तक किसी प्रकार का विघ्न न आने पाए।” जब वह ब्राह्मण साधना में लीन हो गए, तब एक-एक कर बहुत से राक्षस वहाँ आने लगे। प्रत्येक दिन वहाँ एक राक्षस आता और उन सबको बर्बरीक ने या पराजित कर दिया या वहीं मार डाला।
फिर एक समय पलाशी नामक दैत्य, जिनकी संख्या 9 करोड़ थी, उन सबने आकार बर्बरीक को घेर लिया और विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के साथ उसपर पर टूट पड़े। इस प्रकार करोड़ों दैत्यों को देखकर घटोत्कच पुत्र क्रोध से जल उठा। उसने किन्हीं को पैरों से, किन्हीं को भुजदण्डों से और किन्हीं को छाती के धक्के से मार-मारकर क्षण भर में यमलोक पहुंचा दिया।
ब्राह्मण का बर्बरीक को वरदान
कुछ समय बाद विजय अपना सब कार्य पूरा कर चुके थे। उन्होंने बर्बरीक से कहा, “वीरेन्द्र! तुम्हारे प्रसाद से मैंने अनुपम सिद्धि प्राप्त की है। तुम दीर्घकाल तक जीओ, आनन्द करो, दान दो और विजयी बनो। मेरे होमकुण्ड में सिन्दूर के समान लाल रंग का सात्विक एवं अत्यन्त पवित्र भस्म है, उसे हाथ में भरकर ले लो। युद्धभूमि में इसे पहले छोड़ देने पर शत्रु के स्थान पर साक्षात् मृत्यु ही शत्रु बन कर आ जाएगी और उसके शरीर को भी यह नष्ट कर देगा। इस प्रकार शत्रुओं पर तुम्हें सुखपूर्वक विजय प्राप्त होगी।”
पांडवों की बरबारीक से भेंट
तत्पश्चात् कुछ काल बीतने पर पाण्डव लोग जुए में हार गए और विभिन्न तीर्थों में घूमते हुए उस शुभ तीर्थ में भी स्नान के लिए आये। बर्बरीक ने वहाँ पधारे हुए पाण्डव वीरों को देखा, परंतु वह उन्हें पहचानता नहीं था। पाण्डव भी उसे नहीं पहचानते थे; क्योंकि जन्म से लेकर अब तक पाण्डवों के साथ उसकी भेंट ही नहीं हुई थी।
बर्बरीक भीम का युद्ध
भीमसेन के नेत्र प्यास से व्याकुल हो रहे थे। जल देखकर उन्होंने वहीं पीने का निश्चय किया और शुद्धि के लिए मुख, दोनों हाथ और दोनों पैर धोए। भीमसेन जब इस प्रकार पैर धो रहे थे, उस समय बर्बरीक भीम से बोले, “ओ दुर्मते! तुम यह क्या कर रहे हो? तुम देवी के कुण्ड में हाथ, पैर और मुंह धो रहे हो। मैं देवी को सदा इसी जल से स्नान कराता हूँ। मल से दूषित जल को तो मनुष्य भी नहीं छूते, फिर देवता उसका स्पर्श कैसे कर सकते हैं? जब तुम इतने बड़े मूढ़ हो, तो तीर्थों में क्यों घूम रहे हो?”
भीमसेन ने कहा, “क्रूर राक्षसाधम! तू क्यों ऐसी कठोर बातें कहता है? जल का दूसरा उपयोग ही क्या है, वह प्राणियों के भोग के लिए ही तो होता है?” इतने में उन दोनों में जल को लेकर बहुत बड़ा संवाद हुआ, दोनों एक-दूसरे को तर्क वितर्क देने लगे।
तदंतर भीमसेन बोले, “कौवे की तरह तेरी काएँ-काएँ कर्कश ध्वनि से मेरे तो कान बहरे हो गए। अब तू अपनी इच्छा के अनुसार यहाँ विलाप कर या चिंता के मारे सूख जा; मैं तो जल पीकर ही रहूँगा।”
तभी बर्बरीक ने ईंटें उठा लीं और भीम के मस्तक को लक्ष्य करके फेंकना आरम्भ किया। भीमसेन उसके प्रहार को बचाकर सरोवर से बाहर आ गए। फिर तो दोनों में भयंकर युद्ध आरंभ हो गया। दो ही घड़ी में उस राक्षस के सामने भीमसेन दुर्बल पड़ने लगे। अंत में बर्बरीक ने भीमसेन को उठा लिया और उन्हें जल में फेंकने के लिए समुद्र की ओर चल दिया। उस समय भगवान शंकर ने आकाश में स्थित होकर बर्बरीक से कहा, “महाबली बर्बरीक! ये तुम्हारे पितामह भीमसेन हैं, इन्हें छोड़ दो। ये तीर्थयात्रा के प्रसंग से अपने भाईयों तथा द्रौपदी के साथ विचरते हुए इस तीर्थ में भी स्नान करने के लिए ही आए हैं।”
तदनंतर बर्बरीक सहसा भीमसेन को छोड़कर उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला, “पितामह! मुझे क्षमा कीजिये।” उसे इस प्रकार शोक करते देख भीमसेन ने उसे छाती से लगा लिया। भीम बोले, “पुत्र, तुम वर पाने के योग्य हो, अतः यह शोक छोड़कर तुम्हें स्वस्थ हो जाना चाहिए।”
बर्बरीक का आत्महत्या का प्रयास और श्रीकृष्ण का उसे रोकना
बर्बरीक बोला, “पितामह! मैं पापी हूँ, ब्रह्महत्यारे से भी अधिक घृणा का पात्र हूँ। अतः जिस शरीर से मैंने पितामह को पीड़ा पहुँचाई है, उस अपने शरीर को आज मैं महीसागर संगम में त्याग दूँगा।” वह जब ऐसा कहने लगा, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे सान्त्वना दी और उसकी स्तुति की। वे बोले, “तुम पाप से रहित हो; तुम देवताओं और ऋषियों द्वारा भी वंदित हो। इस तीर्थ में स्नान करने से तुम पवित्र हो जाओगे और महाभारत युद्ध में भी तुम अपने पूर्व जन्म में किये हुए तपस्या के पुण्य का फल पाओगे। तुम्हारा सारा शरीर उत्तम तेज से सम्पन्न होगा।”
यह सुनकर बर्बरीक ने भगवान को प्रणाम कर कहा, “भगवान! मैं भी महाभारत युद्ध में जाना चाहता हूँ। मैं युद्ध भूमि में वहाँ की समस्त सेना को पराजित करने का सामर्थ्य रखता हूँ। परंतु यदि मैं वहाँ युद्ध में लड़ा तो मेरी माता या तो विधवा हो जाएगी या मैं स्वयं युद्ध में मारा जाऊंगा। मेरे वहाँ युद्ध में सम्मिलित होने से अनर्थ हो जाएगा।”
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “वीरवर! तुम शीघ्र ही महाभारत के युद्ध में जाओ। वहाँ इस समय जो कौरवों तथा पाण्डवों का संग्राम हो रहा है, उसमें तुम्हारे बिना विजयी होना सम्भव नहीं है। देवताओं और ऋषियों का महान संकल्प भी तुम्हारे जाने से ही पूरा होगा। तुम युद्ध में श्रीहरि (श्रीकृष्ण) को पहचान लोगे। युद्ध भूमि में श्रीहरि के दर्शन करना और उनकी कृपा प्राप्त करना तुम्हारे लिए परम सौभाग्य की बात होगी।”
इस प्रकार बर्बरीक भगवान के आदेश पर युद्धभूमि में जाने के लिए तत्पर हो गए
बर्बरीक का महाभारत युद्ध में जाना
पाण्डवों के वनवास का तेरहवाँ वर्ष समाप्त होने के बाद, सभी राजा युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए। महारथी पाण्डव भी युद्ध के लिए वहाँ पहुंचे। वे चिंतित थे कि कैसे वे भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, अश्वत्थामा, कर्ण, दुर्योधन और कौरव पक्ष के अन्य महारथियों का सामना करेंगे, जिन्हें हराना बहुत कठिन था। इस पर अर्जुन बोले, “बूढ़े भीष्म, गुरु द्रोण और कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा से हमें क्या भय है? मैं अकेला ही समस्त कौरवों को एक दिन में नष्ट कर सकता हूँ।”
अर्जुन की इस बात पर बर्बरीक ने हंसते हुए कहा, “महात्मा अर्जुन की प्रतिज्ञा मेरे लिए असहनीय है, क्योंकि यह दूसरे वीरों का अपमान है। आप सभी लोग, अर्जुन और श्रीकृष्ण सहित, शांत खड़े रहें। मैं एक ही मुहूर्त में भीष्म आदि सबको यमलोक भेज दूंगा।” बर्बरीक की इस बात से अर्जुन विस्मित हो गए। श्रीकृष्ण ने कहा, “पार्थ! घटोत्कच के इस पुत्र ने अपनी शक्ति के अनुसार ही बात कही है। पूर्वकाल में इसने पाताल में नौ करोड़ पलाशी नामक दैत्यों को क्षणभर में मार दिया था।”
तब श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से पूछा, “वत्स! कौरव महा योद्धाओं पर देवताओं के लिए भी विजय पाना कठिन है, तुम उन्हें इतना शीघ्र कैसे मार सकते हो?” बर्बरीक ने तुरंत धनुष चढ़ाया और उस पर बाण का संधान किया। उसने बाण को लाल रंग के भस्म से भर कर छोड़ दिया। उस बाण के मुख से जो भस्म उड़ा, वह दोनों सेनाओं के सैनिकों के मर्मस्थलों पर गिरा। केवल पांच पाण्डव, कृपाचार्य और अश्वत्थामा इससे अछूते रहे। बर्बरीक ने पुनः सब से कहा, “अब इन्हीं मर्मस्थलों में देवी के दिए हुए तीक्ष्ण और अमोघ बाण मारूँगा, जिससे ये सभी योद्धा क्षणभर में मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे। आप सब को अपने-अपने धर्म की सौगंध है, कदापि शस्त्र न उठाएं।”
श्री कृष्ण द्वारा बर्बरीक का मस्तक काटना और उसके पूर्वजन्म की कथा बताना
यह सुनते ही श्रीकृष्ण ने क्रोध से अपने तीखे चक्र से बर्बरीक का मस्तक काट गिराया। यह देख सबको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे एक-दूसरे से कहने लगे, “अहो! यह क्या हुआ?” उसी समय सिद्धाम्बिका और अन्य चौदह देवियाँ वहाँ आ पहुंचीं। उन्होंने बताया कि भगवान श्रीकृष्ण ने महाबली बर्बरीक का वध क्यों किया। वे बोलीं, “पूर्वकाल में मेरुपर्वत के शिखर पर सभी देवता एकत्र हुए थे। उस समय भार से पीड़ित पृथ्वी वहाँ गई और देवताओं से बोली, ‘आप लोग मेरा भार उतारें।’ तब ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से कहा, ‘भगवन्! आप ही पृथ्वी का भार उतारें।’
उस समय “सूर्यवर्चा” नामक यक्षराज ने अपनी भुजा उठाकर कहा, ‘मेरे रहते आप लोग मनुष्यलोक में क्यों जन्म धारण करेंगे? मैं अकेला ही अवतार लेकर पृथ्वी के भारभूत सब दैत्यों का संहार करूंगा।’ सूर्यवर्चा की इस बात पर ब्रह्माजी क्रोधित होकर बोले, ‘दुर्मते! पृथ्वी का यह महान भार समस्त देवताओं के लिए भी दुःसह है, उसे तू मोहवश केवल अपने ही द्वारा साध्य बतलाता है। मूर्ख! पृथ्वी का भार उतारते समय जब युद्ध का आरम्भ होगा, उस समय श्रीकृष्ण के हाथ से तेरे शरीर का नाश होगा।’
ब्रह्माजी द्वारा यह शाप प्राप्त होने पर उसने विष्णु जी से मांगा, ‘यदि इस प्रकार मेरे शरीर का नाश होनेवाला है, तो कृपया जन्म से ही मुझे ऐसी बुद्धि दीजिये, जो सब अर्थों को सिद्ध करनेवाली हो।’ यह सुनकर भगवान विष्णु ने कहा, ‘ऐसा ही होगा। देवियाँ तुम्हारे मस्तक की पूजा करेंगी। तुम पूज्य हो जाओगे।’
श्रीकृष्ण का बर्बरीक के मस्तक को जीवित करना और देवियों द्वारा उनका वरदान प्राप्ति
तदनंतर वे देवियाँ बोलीं, ‘सूर्यवर्चा ही घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक था, जो मारा गया है। अतः सभी राजाओं को श्रीकृष्ण में दोष नहीं देखना चाहिए।’ भगवान श्रीकृष्ण वहाँ देवी चंडिका से बोले, ‘देवि! यह भक्त का मस्तक है। इसे अमृत से सींचो और राहु के सिर की भाँति अजर-अमर बना दो।’ देवी ने वैसा ही किया।
जीवित होने पर उस मस्तक ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और कहा, “मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, इसके लिए मुझे अनुमति मिले।” तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, “वत्स! जब तक यह पृथ्वी, नक्षत्र, चन्द्रमा और सूर्य रहेंगे, तब तक तुम सभी लोगों के द्वारा पूजनीय होओगे। अब तुम इस पर्वत शिखर पर चढ़कर वहाँ रहो। वहीं से होने वाले युद्ध को देखना।” बर्बरीक का मस्तक पर्वत के शिखर पर स्थित हो गया। उसका शरीर जमीन पर था, उसका यथाविधि संस्कार कर दिया गया। तत्पश्चात् कौरव और पाण्डवों की सेना में भयानक संग्राम छिड़ गया, जो लगातार अठारह दिनों तक चला।
बर्बरीक कैसे बने खाटू श्याम
युद्ध समाप्ति के बाद, भीम को साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के समीप जाकर कहा, “वीर, तुम्हें इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिए। हमसे जो भी अपराध हो गए हों, उन्हें क्षमा करना।” भगवान के ऐसा कहने पर बर्बरीक ने उन्हें प्रणाम किया और प्रसन्नतापूर्वक वह अपने अभीष्ट स्थान को चला गया। भगवान वासुदेव भी अवतार संबंधी सब कार्य पूर्ण कर परमधाम को पधारे। माना जाता है कि ये ही सिद्ध बर्बरीक, खाटू श्याम जी के नाम से प्रसिद्ध हैं। जय श्री कृष्ण!