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अगस्त्य मुनि की अनसुनी कहानी | Was Agastya muni the most powerful & no. 1 rishi ?
आखिर कौन थे अगस्त्य मुनि, कितने शक्तियाँ थी उनमें, कैसे हुआ था उनका जन्म, हमारे सनातन धर्म में उनका क्या योगदान था, महर्षि अगस्त्य के जीवन से जुड़ी बहुत सी रोचक घटनाओं को जानने के लिए इस लेख पूरा अवश्य पढ़ें
अगस्त्य मुनि का जन्म
भागवत पुराण, स्कन्द 6, अध्याय 18 के अनुसार, एक समय मित्र और वरुण ने उर्वशी को देखा। उस अप्सरा को देखकर दोनों मोहित हो गए और उनके इस मोह में वीर्य स्खलित हो गया।
इसे उन्होंने एक घड़े में संग्रहित कर दिया। कुछ समय बाद वह घड़ा अपने आप फूट गया और उसमें से दो बच्चे बाहर आ गए। एक थे मुनि अगस्त्य और दूसरे वसिष्ठ जी। चूंकि ये दोनों मित्र और वरुण के वीर्य से जन्मे थे, इसलिए इन्हें बाद में मैत्रावरुणि के नाम से भी जाना जाने लगा।
अगस्त्य जी की शिक्षा
उनकी शिक्षा के बारे में पुराणों में बहुत कम उल्लेख है, फिर भी इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि वे वेदों और विज्ञान में पारंगत थे और विविध अस्त्र-शस्त्रों के उपयोग में कुशल थे। महाभारत, आदि पर्व के अध्याय 139 में गुरु द्रोण अर्जुन से कहते हैं: “महर्षि अग्निवेश, जो मेरे गुरु थे, वे महर्षि अगस्त्य के शिष्य थे और उन्हीं से उन्होंने धनुष और बाण चलाने की कला सीखी, और कई दिव्यास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त किया।”
इस वृत्तांत से यह स्पष्ट होता है कि मुनि अग्निवेश, जो द्रोण के गुरु थे, स्वयं अगस्त्य जी के शिष्य थे। इससे उनके अस्त्र-शस्त्र चलाने की कला में उनकी दक्षता को समझा जा सकता है।
अगस्त्य मुनि के विवाह की कथा
एक समय अगस्त्य मुनि कहीं जा रहे थे। उन्होंने एक स्थान पर अपने पितरों को देखा, जो एक गड्डे में नीचे मुंह किये लटक रहे थे। तब मुनि ने उनसे पूछा, “आप लोग यहां किसलिए नीचे मुंह किये कांपते हुए लटक रहे हैं?” इस पर वेदवादी पितरों ने उत्तर दिया, “हम संतान की इच्छा में इस गड्डे में लटक रहे हैं। यदि तुम हमारे लिए उत्तम संतान उत्पन्न कर सको, तो हम नरक से छुटकारा पा सकते हैं और तुम्हें भी सद्गति प्राप्त होगी।”
तब उन्होने पितरों की इच्छा पूरी करने का संकल्प लिया और विचार किया कि क्या कोई ऐसी महिला होगी जो इतनी धैर्यवान हो कि इस दाढ़ी वाले बौने साधु की पत्नी बन सके? तब उन्होंने एक-एक जंतु के उत्तम अंगों का भावना द्वारा संग्रह कर एक परम सुन्दर स्त्री का निर्माण किया। उस समय विदर्भराज पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या कर रहे थे। तब उन मुनि ने अपनी बनाई हुई वह स्त्री राजा को दे दी।
कुछ वर्षों बाद, जब विदर्भ राजकुमारी युवावस्था में आई, तो राजा विचार करने लगे कि इस कन्या का विवाह किससे करें। जब अगस्त्य मुनि को ज्ञात हुआ कि विदर्भ राजकुमारी गृहस्थी चलाने के योग्य हो गई है, तो वे विदर्भ नरेश के पास गए और बोले, “राजन! पुत्र प्राप्ति के लिए मैं आपकी कन्या का वरण करता हूँ।” मुनि के ऐसा कहने पर विदर्भराज के होश उड़ गए। वे न तो अस्वीकार कर सके और न ही कन्या देने की इच्छा ही की।
तब विदर्भ नरेश अपनी पत्नी के पास जाकर बोले, “प्रिय! ये महर्षि बड़े शक्तिशाली हैं। यदि कुपित हों तो हमें शाप की अग्नि से भस्म कर सकते हैं।” तब रानी सहित महाराज को दुखी देख लोपामुद्रा बोली, “पिताजी, आपको मेरे लिए दु:ख नहीं मानना चाहिए। आप मुझे अगस्त्य जी की सेवा में दे दें और मेरे द्वारा अपनी रक्षा करें।” तब राजा ने महात्मा मुनि को विधिपूर्वक अपनी कन्या लोपामुद्रा ब्याह दी।
लोपमुद्रा की सेवा से प्रसन्न होकर अगस्त्य जी ने कहा, “शोभामयी कल्याणी! तुम्हारे सद्व्यवहार से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। पुत्र के संबंध में तुम्हारे सामने एक विचार रखता हूँ। क्या तुम्हारे गर्भ से एक हजार या एक सौ पुत्र उत्पन्न हों, जो दस के समान हों! अथवा दस ही पुत्र हों, जो सौ पुत्रों की समानता करने वाले हों! अथवा एक ही पुत्र हो, जो हजारों को जीतने वाला हो!” लोपामुद्रा ने उत्तर दिया, “तपोधन! मुझे सहस्रों की समानता करने वाला एक ही श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त हो।” तब गर्भाधान करके मुनि वन में चले गए।
सात वर्ष बीतने पर, उनके तेज और प्रभाव से प्रज्वलित होता हुआ वह गर्भ उदर से बाहर निकला। वही महाविद्वान दृढ़स्यु के नाम से विख्यात हुआ। महर्षि का वह महातपस्वी और तेजस्वी पुत्र जन्मकाल से ही अंग और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का स्वाध्याय करता जान पड़ा। दृढ़स्यु ब्राह्मणों में महान माने गए।
महर्षि अगस्त्य के कार्य
महर्षि द्वारा राक्षस वतापी और इल्वल को मारकर उनके आतंक का अंत किया
इल्वल और वतापी ब्राह्मणों को अपना शत्रु मानते थे। इल्वल अपने छोटे भाई वतापी को बकरी में बदल देता था और जब भी कोई ब्राह्मण उसके घर आता, तो वह बकरी को मार देता और उसके मांस के व्यंजन ब्राह्मणों को परोस देता। जब ब्राह्मण भोजन कर चुके होते, तो इल्वल पुकारता, “वतापी, बाहर आओ।” तब अतिथि का पेट फाड़कर वतापी बाहर आ जाता। इस प्रकार इल्वल ने कई ब्राह्मणों की हत्या कर दी थी।
एक समय महर्षि अगस्त्य उन दोनों के यहाँ पहुँचे। उन दोनों ने वही छल करने का प्रयास किया, लेकिन मुनि ने भोजन के रूप में वतापी को खा लिया और “वतापी, जीर्यम् भव” कहकर उसे पचा लिया, जिससे वतापी मर गया और फिर उन्होंने इल्वल का भी वध कर दिया।
अगस्त्य जी ने विंध्य पर्वत को बढ़ने से रोका
सूर्यदेव गिरिराज मेरु की परिक्रमा करते थे। विंध्य पर्वत ने सूर्य से कहा, “भास्कर! जैसे आप मेरु की परिक्रमा करते हैं, उसी तरह मेरी भी करें।” सूर्यदेव ने उत्तर दिया, “गिरिश्रेष्ठ! मैं अपनी इच्छा से मेरु की परिक्रमा नहीं करता, यह मार्ग मेरे लिए निर्धारित किया गया है।” सूर्यदेव के ऐसा कहने पर विंध्य पर्वत कुपित हो गया और उसने सूर्य और चंद्रमा के मार्ग को रोकने की इच्छा से बढ़ने लगा। इससे चंद्रमा के मार्ग और नक्षत्रों की गति में रुकावट आने लगी। देवताओं के याचना करने पर भी विंध्य पर्वत नहीं माना। तब वे सब अगस्त्य मुनि के पास गए और उनसे विंध्य को रोकने की याचना की।
मुनि अपनी पत्नी लोपामुद्रा के साथ विंध्य पर्वत के पास गए और उससे बोले, “पर्वतश्रेष्ठ! मैं किसी कार्य से दक्षिण दिशा जा रहा हूँ, मेरी इच्छा है कि तुम मुझे मार्ग प्रदान करो। जब तक मैं लौटकर न आऊँ, तब तक मेरी प्रतीक्षा करना। मेरे लौट आने पर तुम पुनः इच्छा अनुसार बढ़ते रहना।” विंध्य पर्वत ने उनका अनुसरण किया, और आज तक दक्षिण प्रदेश से मुनि अगस्त्य वापस नहीं लौटे।
अगस्त्य जी द्वारा क्रौंच को शाप देना
जब वे मुनि विंध्य पर्वत को लांघकर दक्षिण की ओर बढ़े, तो क्रौंच नामक एक राक्षस ने उनके रास्ते में बाधा डाली। राक्षस ने अपनी शक्ति से सर्वत्र भारी वर्षा कराई। तब उन मुनि ने अपने कमंडलु से पानी की कुछ बूंदें क्रौंच पर छिड़कीं, जिससे क्रौंच एक पर्वत बन गया। अगस्त्य जी ने उससे कहा कि जब कार्तिकेय जी अपने दिव्य शस्त्रों के द्वारा तुम्हारा अंत करेंगे, तभी तुम्हें इस श्राप से मुक्ति मिलेगी। इस घटना के बाद महर्षि अगस्त्य ने दक्षिण के महान क्षेत्र में वेद धर्म का प्रचार किया और अनेकों मंदिरों का निर्माण किया।
अगस्त्य मुनि द्वारा समुद्र का सारा जल पी जाना
जब कालेय नामक दानवों ने समुद्र में छिपकर उत्पात मचाना आरंभ कर दिया, तब इन्द्र सहित समस्त देवताओं ने महर्षि अगस्त्य से सहायता मांगी। अगस्त्य मुनि ने अपने दिव्य तपोबल से पूरा समुद्र पी लिया, जिससे उन दानवों के छिपने का स्थान समाप्त हो गया। देवताओं ने उन दानवों का वध कर दिया और समुद्र को वापस उसी रूप में लौटाने के लिए मुनि से प्रार्थना की। तब महर्षि ने समुद्र को पुनः उंडेलकर उसे अपने मूल स्वरूप में स्थित कर दिया।
अगस्त्य मुनि द्वारा उर्वशी, जयन्त तथा नारद को श्राप देना
एक बार अगस्त्य इंद्र के अतिथि बनकर देवताओं के लोक गये। उस दिन मुनि के सम्मान में उर्वशी द्वारा नृत्य का प्रदर्शन आयोजित किया गया था। नृत्य के बीच में उर्वशी की दृष्टि जयंत पर पड़ी और वह उसपर मोहित हो गयी; उसके कदम लय से बाहर हो गए। नारद भी महती नामक अपनी प्रसिद्ध वीणा बजाने में थोड़ा गलत हो गये। तब अगस्त्य जी क्रोधित हो गए और उन्होंने उर्वशी, जयंत और नारद को श्राप दे दिया। श्राप के अनुसार जयन्त कली बन गया। उर्वशी ने पृथ्वी पर माधवी नामक एक महिला के रूप में जन्म लिया और नारद की वीणा ‘महती’ पृथ्वी के लोगों की वीणा बन गई।
राजा नहुष को दंड स्वरूप अजगर बनाना
राजा नहुष ने इंद्र का पद प्राप्त कर अहंकार में आकर ऋषि पत्नियों का अपमान किया। जब उसने स्वयं देवर्षि अगस्त्य की पत्नी को अपने पास बुलाने का आदेश दिया, तो अगस्त्य मुनि ने उसे शाप देकर विशाल अजगर बना दिया। शाप के कारण नहुष ने अपना दिव्य रूप खो दिया और अजगर बनकर जंगल में गिर गया, जहाँ वह युगों तक कष्ट भोगता रहा।
गजेन्द्रमोक्ष में अगस्त्य मुनि की भूमिका
एक समय पांड्य के राजा इंद्रद्युम्न भगवान विष्णु के ध्यान में लीन थे, उसी समय अगस्त्य मुनि उनके महल में पहुँचे। ध्यान में डूबे रहने के कारण राजा को अगस्त्य जी के आगमन का पता ही नहीं चला, जिससे क्रोधित होकर उन्होंने राजा को एक हजार वर्षों के लिए हाथी बनने का श्राप दे दिया। गजेन्द्र बने उन इंद्रद्युम्न का उद्धार भगवान विष्णु ने किया था।
ताड़का और मारीच को शाप
मुनि अगस्त्य ने ताड़का और उसके पुत्र मारीच को उनके अत्याचारों के कारण शाप दिया। ताड़का पहले एक सुंदर यक्षिणी थी, लेकिन उसकी राक्षसी प्रवृत्ति के कारण अगस्त्य मुनि ने उसे राक्षसी बनने का शाप दिया। मारीच, ताड़का का पुत्र, भी उसके साथ इस शाप का भागी बना। इस शाप के बाद, ताड़का और मारीच ने राक्षस रूप में अनेक अत्याचार किए और अंततः भगवान राम द्वारा मारे गए।
महर्षि अगस्त्य द्वारा “आदित्य हृदय स्तोत्र” का उपदेश
वाल्मीकि रामायण के अनुसार “आदित्य हृदय स्तोत्र” अगस्त्य ऋषि द्वारा भगवान् श्री राम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति हेतु दिया गया था। श्रीरामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिंता करते हुए रणभूमि में खड़े हुए थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया।
यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, उस समय उन्होंने श्रीराम को यह गोपनीय स्तोत्र सुनाया। महर्षि ने उन्हें विष्णु जी का एक धनुष, ब्रह्मा जी के दिव्य बाण, दो तूणीर जिनके बाण कभी समाप्त नहीं हो सकते थे, इंद्र देव की एक दिव्य तलवार और विष्णु जी का ही एक धनुष भी प्रदान किया था।
महर्षि अगस्त्य का योगदान और उनके ग्रंथ
महर्षि अगस्त्य से जुड़ी ऐसी अनन्य कथाएँ हैं जिनका एक ही लेख में संभव नहीं है। केवल यही नहीं, अगस्त्य मुनि ऋग्वेद के मंडल 1 में 27 सूक्तों के दृष्टा हैं, जिनमें 239 मंत्र हैं। यह सूक्त 165वें सूक्त से शुरू होकर 192वें सूक्त पर समाप्त होता है। वे कई ग्रन्थों के रचयिता भी हैं जैसे कि अगस्त्य गीता, अगस्त्य संहिता, शिव संहिता इत्यादि।
अगस्त्य मुनि की तपस्या
ऐसा माना जाता है कि महान तपस्वी अगस्त्य, जिन्होंने अपनी तपस्या के गुणों से अद्भुत कार्य किये थे, आज भी वे कूट पहाड़ियों पर तपस्या कर रहे हैं। अगस्त्य, जिन्होंने पूरे भारतवर्ष की यात्रा की थी, उनके कई आश्रम समस्त भारत में स्थित हैं। दक्षिण भारत में अगस्त्य मुनि सर्वाधिक पूजनीय हैं। श्री राम अपने वनवास काल में ऋषि अगस्त्य के आश्रम में पधारे थे। जय श्री राम।