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हिन्दू धर्म के अनुसार 20 सबसे शक्तिशाली राक्षस कौन थे | Who were the 20 most powerful demons according to Hindu religion?
हमारे सनातनी इतिहास में अगर शक्तिशाली देवों, योद्धाओं, गन्धर्वों आदि का वर्णन है, तो उतना ही महत्व हर युग में मौजूद रहे राक्षस, असुरों और दैत्यों को भी दिया गया है। शायद अगर यह न होते, तो इतिहास भी कुछ और होता। आइये, आज ऐसे ही 20 सर्वशक्तिशाली राक्षसों के बारे में जानते हैं जिनके बल और प्राक्रम इतना था कि स्वयं त्रिदेवों को अवतार लेने पड़े।
हिन्दू महाकाव्यों के अनुसार 20 राक्षस इस प्रकार हैं
मेघनाद
रावण पुत्र मेघनाद अपने पिता की ही तरह एक अति शक्तिशाली योद्धा था ,उसने इन्द्र को पराजित करने से पहले मारुत ,रुद्र , आदित्यों, और वसुओं को परास्त किया था, उसके अस्त्रों को अचूकता तथा अजयता का वरदान था जो उसे और भी शक्तिशाली बनाते थे, निकुंभील यज्ञ को सम्पूर्ण कर लेने के बाद उसे पराजित करना असंभव हो जाता था, उसे तामसी और मायावी शक्तियों का भी ज्ञान था जिससे वह अदृश्य सा हो जाता था और तब वह अपने शत्रुओं पर प्रहार करता था,
उसने अपने ब्रह्मास्त्र से हनुमान जी को बांध लिया था, हालांकि हनुमान जी स्वयं ही ब्रह्मा जी के उस अस्त्र का आदर करते स्वेच्छा से बंधी हुए था, लक्ष्मण जी को भी इंद्रजीत से युद्ध करने में बड़ी कठिनाई आई थी, श्री राम और विभीषण ने लक्ष्मण को सलाह दी थी के कैसे भी पहे उसे यज्ञ करने से रोक दो तभी तुम इंद्रजीत पर विजय पा सकोगे, अंत में लक्ष्मण जी ने इंद्रासत्र चला उस राक्षस का वध किया था, इन दोनों का युद्ध लगातार 3 दिन तक चला था ,
रावण
लंका पति रावण उस समय का सबसे शक्तिशाली राक्षस था उसने त्रिदेवों को छोड़ इन्द्र, यम, वरुण जैसे 30 देवों, यक्षों तथा दैत्यों आदि को पराजित कर तीनों लोकों पर विजय पा ली थी, इन्द्र का वज्र एवं उनके ऐरावत हाथी के प्रहार भी रावण पर निष्फल हो गए थे । कुबेर को पराजित कर उनसे जबरन लंका एवं उनका पुष्पक विमान भी छीन लिया था, उस राक्षस ने भगवान शिव के भार सहित कैलाश पर्वत को कुछ हद तक उठा लिया था जिस वजह से उसे नंदी से श्राप भी मिला था, यह उस राक्षस की भुजबल को दर्शाता है,
रसातल में जाकर उसने वासुकि और तक्षक जैसे अन्य कई शक्तिशाली नागों को पराजित किया था, एक साल अधिक अवधि तक युद्ध कर निवातकवच और कालकेय दैत्यों को पराजित किया था, श्री राम को भी उसका वध करने के लिए 7 दिन तक लगातार युद्ध करना पड़ा था, जिन दिव्यास्त्रों से श्री राम ने पहले कई शत्रुओं का आसानी से वध कर दिया था, वह दिव्यास्त्र भी उसपर विफल हो गए थे, अंत में श्री राम ने ब्रह्मा जी के एक विशेष अस्त्र से उसका वध किया था
कुंभकर्ण
वह रावण का छोटा भाई था, कुम्भकर्ण अत्यंत बलशाली और भीमकाय राक्षस था, कुंभकर्ण ने जन्म लेते ही भूख से विकल हो , बहुत से हजारों जीवों को खा लिया था, जब इन्द्र ने कुपित हो अपना वज्र कुंभकर्ण पर चलाया था तो उस वज्र के प्रहार को भी वह राक्षस सह गया तथा इन्द्र के ऐरावत हाथी का ही दाँत उखा , इन्द्र पर चलाकर उन्हे घायल कर दिया था इन्द्र के साथ साथ कुंभकर्ण ने यमराज सहित अन्य समस्त देवों, गन्धर्वों तथा यक्षों को भी पराजित कर दिया था, दूसरे राक्षसों को तो वरदान का बल था, किन्तु कुंभकर्ण स्वभाव से ही बलशाली राक्षस था
श्री राम के साथ हुए अंतिम युद्ध में उसने प्रभु राम को भी अपने बल एवं प्राकरम से अचंभित कर दिया था, जिन बाणों के प्रहार से उन्होने साल वृक्षों को भेद दिया था और बाली जैसे शक्तिशाली वानर को मार गिराया था वह बाण भी कुंभकर्ण पर विफल हो गए जिसे देख श्री राम भी हैरान हो गए थे, अंत में श्री राम को चार दिव्यास्त्रों की सहायता से उसका वद्ध करना पड़ा था, जिसके वध के लिए श्री विष्णु अवतार को इतना बल झोंकना पड़ा, 4 दिव्यास्त्र चलाने पड़े वो निश्चित ही कोई आम राक्षस न था
जालंधर
जालंधर का जन्म तब हुआ था जब भगवान शिव की तीसरी आँख से उत्पन्न हुई तीव्र अग्नि ब्रह्मांडीय महासागर से टकराई थी। वह एक अजय असुर था, जिसका कौशल त्रिदेवों के तुल्य माना जाता था। वह इतना शक्तिशाली था कि भगवान विष्णु द्वारा चलायी गई कौमोदकी गदा के प्रहार को भी सहन कर गया था ।
उसने सभी देवों को परास्त कर समस्त लौकिक दुनिया पर कब्जा कर लिया था। उसने एक अवसर पर भगवान शिव के निवास स्थान कैलाश पर भी हमला कर दिया था, जहाँ जालंधर और भगवान शिव में भयंकर युद्ध हुआ था और वो शिव जी के हाथों मारा गया।
हिरण्याक्ष
वह हिरण्यकश्यप का बड़ा भाई था। वह राक्षस इतना शक्तिशाली था कि उसने धरती को अपने हाथों से उठा कर दूर ब्रह्मांडीय आकाशगंगा में फेंक दिया था। भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था, उन्होंने हिरण्याक्ष के साथ युद्ध कर उसका वध किया था, जो कई वर्षों तक चला था।
दुर्गमासुर
वह रूरु नाम के राक्षस का पुत्र था, जिसे देवी पार्वती ने मार डाला था। अपने पित्र की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए उसने दिव्य ऋषियों से चारों वेद चुरा लिए, क्योंकि वह समझता था कि उसके पिता की मृत्यु दैवीय हस्तक्षेप से ही हुई थी। समस्त देव, जिनका नेतृत्व इन्द्र कर रहे थे, वहाँ उन वेदों को वापिस लेने के उद्देश्य से आए और वहाँ भीषण युद्ध छिड़ गया। पर दुर्गमासुर ने उन सबको पराजित कर दिया।
उन वेदों के उस दुष्ट राक्षस द्वारा चुराए जाने पर अधर्म अपने चरम पर था और सम्पूर्ण ब्रह्मांड विनाश की कगार पर था। तब देवी पार्वती ने हजार भुजाओं वाली भयंकर योद्धा का रूप धारण कर लिया। उन्होंने 10 दिनों में ही उस राक्षस की समस्त सेना का संहार कर दिया और 11वें दिन दुर्गमासुर का भी वध कर दिया, और उन चारों वेदों को देवय ऋषियों को पुनः सौंप दिया। दुर्गमासुर का वध करने के उपरांत ही वह माँ दुर्गा के नाम से भी जानी जाने लगी।
हिरण्यकश्यप
अति पराक्रमी हिरण्यकश्यप ने ब्रह्मा जी से बड़ा ही जटिल वरदान प्राप्त किया था। उसने माँगा था कि उसे कोई भी देव, असुर, गंधर्व, नर और पिशाच न मार पाये, कोई ऋषि भी क्रोध में मुझे श्राप न दे पाये। किसी अस्त्र-शस्त्र से मेरी मृत्यु न हो पाये। मैं सूर्य, चंद्रमा, पवन, अग्नि, जल, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, अहंकार, क्रोध, वसावा आदि का स्वामी बन जाऊँ।
ब्रह्मा जी बोले, “यह एक दिव्य और असाधारण वरदान है, फिर भी मैं तुम्हें दे रहा हूँ।” समय बीतने के साथ हिरण्यकश्यप और भी अहंकारी होता चला गया और उस राक्षस ने मांग की कि अब से सब उसकी ही पूजा करें। वह खुद को समस्त देवताओं से ऊपर समझने लगा। जब उसके बेटे प्रहलाद ने ऐसा करने से मना कर दिया, तब हिरण्यकश्यप ने अपने ही पुत्र का वध करने का कई बार प्रयास किया। तब भगवान विष्णु ने नरसिम्हा अवतार धर कर उस राक्षस का वध किया था।
महिशासुर
उस राक्षस ने इन्द्र सहित बाकी समस्त देवों के खिलाफ एक महायुद्ध कर परास्त किया था, जो कई सौ वर्षों तक चला। यहाँ तक कि उसने इन्द्र, सूर्य, वरुण, यम, अग्नि, कुबेर आदि देवों को पराजित कर उनकी शक्तियों को भी छीन लिया था। तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर, उस शक्तिशाली राक्षस ने इन्द्र देव के साम्राज्य की राजधानी अमरावती पर कब्जा कर लिया था।
तब त्रिदेवों सहित बाकी समस्त देवों की संयुक्त ऊर्जा से देवी अंबिका प्रकट हुई। समस्त देवों ने अपने आयुध भी देवी को दिए। अंततः देवी अंबिका ने पहले अपने शूल से उसे अचेत कर दिया और फिर अपनी तलवार से उस राक्षस का सिर काट दिया।
तारकासुर
तारकासुर ऋषि कश्यप का पोता और एक भयानक राक्षस था। उसने बार-बार देवताओं, गन्धर्वों, यक्षों तथा मकरों आदि को पराजित किया। कई अवसरों पर तो भगवान विष्णु का चक्र तक उस पर विफल हो गया था। तारकासुर ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या की थी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उससे वर माँगने के लिए कहा। तब तारकासुर ने दो वरदान माँगे:
- मेरे समान कोई बलवान न हो।
- यदि मैं मारा जाऊँ, तो उसी के हाथ से जो शिव से उत्पन्न हो।
ब्रह्मा से ये दोनों वर प्राप्त करके तारकासुर घोर अन्याय करने लगा। इसी लिए कार्तिकेय का जन्म हुआ, जिन्होंने तारकासुर का वध किया।
मधु कैटभ
भगवान विष्णु जब योगनिद्रा में थे, तब यह दोनों दैत्य उनके कानों से उत्पन्न हुए थे। यह दोनों ब्रह्मलोक पहुँच गए और वहाँ ब्रह्मा जी पर आघात कर उन्हें मारने का प्रयास किया। इससे भयभीत होकर ब्रह्मा जी क्षीर सागर में विष्णु जी की शरण में पहुंचे। भगवान विष्णु ने इन राक्षसों से 5000 वर्षों से अधिक समय तक युद्ध किया। मधु और कैटभ बारी-बारी से युद्ध लड़ते थे। एक थक जाता था, तो वह विश्राम करता था और दूसरा युद्ध करता था। पर भगवान विष्णु निरंतर 5000 साल तक इनसे लड़ते रहे।
उन दोनों दैत्यों की वीरता से प्रसन्न हो विष्णु जी ने उनसे वरदान मांगने को कहा, पर अहंकार से भरे हुए मधु कैटभ ने वर मांगने से मना कर दिया और उल्टा विष्णु जी को ही वर मांगने को कह दिया। इस पर विष्णु जी बोले, “चलो, मुझे यह वरदान दो कि तुम दोनों की मृत्यु मेरे ही हाथों से हो।” उन दोनों ने विष्णु जी को मारने की कोशिश की, पर अंत में विष्णु जी ने अपनी सुदर्शन चक्र का प्रयोग करके दोनों का वध किया।
शुंभ निशुंभ
देवी भागवत के स्कन्ध 5 के अनुसार, पूर्वकाल में शुंभ-निशुंभ नामक दो दैत्य पाताल से भूमंडल पर आ गए, उन्होंने पूर्ण वयस्क होने पर जगतपावन पुष्कर तीर्थ में अन्न तथा जल का परित्याग करके कठोर तप आरंभ कर दिया, उन्होंने 10 हज़ार वर्षों तक घोर तपस्या की, उनकी इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी वहाँ प्रकट हुए, तब शुंभ निशुंभ बोले अगर आप हुमसे प्रसन्न हैं तो आप हमें अमरता प्रदान कीजिये, ब्रह्मा जी बोले यह वरदान सर्वथा अदेय है, जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है, तब उन दोनों ने विचार करके मांगा, के देवता, मनुष्य, मृग अथवा पक्षी, इनमें से किसी भी पुरुषजाति द्वारा हमारा मरण न हो, इसे आप हमें प्रदान करें।
ऐसी कौन बलवती स्त्री है, जो हम दोनों का नाश कर सके, इस चराचर त्रिलोकी में हम दोनों भाई किसी भी स्त्री से नहीं डरते। निशुंभ का वध भगवती चंडिका के हाथों हुआ था और शुंभ माँ कालिका के हाथों मारा गया। ज्ञान रहे यह सब इतनी आसानी से भी नहीं हुआ था। इस वृतांत को हम संक्षिप्त रखना चाहते थे। आप देवी भागवत में इन दोनों दैत्यों का महान प्राक्र्म पढ़ सकते हैं।
नरकासुर
भागवत पुराण के अनुसार नरकासुर, भू देवी और भगवान विष्णु के वराह अवतार का पुत्र था, विष्णु जी ने उसे प्रागज्योतिषपुर का राजा बना दिया। एक परम देव पिता और पुण्यात्मा माता होने के बावजूद वह बड़ी ही क्रूर प्रवृत्ति का था। बानासुर की संगत से नरकसुर और भी निर्मम और अत्याचारी होता चला गया। बानसुर ने उसे ब्रह्मा जी की तपस्या करने की सलाह दी और कहा इससे तुम और भी शक्तिशाली हो जाओगे और पृथ्वी ही नहीं तीनों लोकों पे राज कर सकोगे।
यह सुनते ही वो ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उसे कोई भी वर मांगने को कहा। तब नरकसुर बोला मैं जानता हूँ आप मुझे अमरता का वरदान नहीं देंगे, तो उसने ब्रह्मा जी से कहा मेरी मृत्यु केवल मेरी माँ के हाथों ही हो और कोई भी मुझे मार न सके। यह वरदान मांगते हुए उसने सोचा था के एक माँ कभी अपनी संतान का बुरा नहीं कर सकती। ब्रह्मा जी तथास्तु कहते हुए वहाँ से प्रस्थान कर गए।
इसके उपरांत उसने सारी पृथ्वी के साथ इंद्रलोक पर भी विजय पा ली, इन्द्र को वहाँ से निकाल दिया। उसने माता अदिति के दिव्य कुंडल भी छीन लिए थे। अंत में एक बड़े भयंकर और कठिन युद्ध के बाद, सत्यभामा के हाथों उसकी मृत्यु हुई थी। सत्यभामा वास्तव में भूदेवी का ही अवतार थीं। श्री कृष्ण ने वहाँ कहा था, भूदेवी ने तुम्हें पराजित करने के विशेष उदेश्य से ही यह अवतार लिया था। मैं तुम्हें कभी भी मार नहीं सकता था। यह काम सिर्फ सत्यभामा ही कर सकती थी।
अंधक
अंधक का जन्म माता पार्वती के पसीने से हुआ था, भगवान शिव ने उस बच्चे को दैत्यराज हिरण्याक्ष को दे दिया। शिव पुराण के रुद्र संहिता – युद्ध खंड के अनुसार उसने हजारों वर्षों तक ब्रह्मा जी का घोर तप किया था और अंत में उस शरीर को अग्नि में हों देना चाहा, तब ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए, और उसने मांगा के जिन्होंने मेरा राज्य छीना वो मेरे अधीन हो जाएँ, मुझे दिव्य चक्षु मिल जाएँ, इन्द्र आदि देवता मुझे कर दें, और किसी भी मनुष्य, दैत्य, गंधर्व, देव या यहाँ तक के विष्णु और शिव भी मेरा वध न कर पाएँ।
ब्रह्मा जी ने कहा जो आया है उसे एक दिन काल के गाल में जाना पड़ता है इसीलिए अपने विनाश का कोई कारण भी स्वीकार कर ले। तब उसने एक जटिल सी शर्त रखी, उसी के कारण वह माँ पार्वती पर ही मोहित हो गया था और येही उसकी मृत्यु का कारण बनी। अंत में उस राक्षस का वध भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से किया था।
भस्मासुर
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध के अनुसार एक राक्षस वृकासुर जिसे भस्मासुर के नाम से भी जाना जाता था उसने नारद जी से पूछा की तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होने वाला कौन है?’ देवर्षि नारद ने कहा- ‘तुम भगवान शंकर की आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायेगा।’ भगवान शिव उसकी भक्ति एवं निष्ठा से प्रसन्न होकर उसे वर मांगने को बोले, तो वृकासुर ने यह वर मांगा की मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ, वह वही मर जाये।’ उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने-से हो गये, फिर हँसकर कह दिया- ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ ऐसा वर देकर उन्होंने मानो साँप को अमृत पिला दिया।
भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वती जी को ही हर लूँ।’ वह राक्षस शंकर जी के वर की परीक्षा के लिये उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का उद्योग करने लगा। अंत में इस शक्तिशाली भस्मासुर राक्षस का संहार भगवान नारायण ने अपनी योगमाया का उपयोग कर किया था।
वृत्रासुर
महाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत मोक्षधर्म पर्व में एक स्थान पर पितामह भीष्म और युधिष्ठिर का संवाद है। वहाँ भीष्म, वृत्रासुर का वर्णन देते हुए कहते हैं, प्राचीन काल की बात है, इन्द्र रथ पर आरूढ हो देवताओं को साथ ले वृत्रासुर से युद्ध करने के लिये चले। उन्होंने अपने सामने खड़े हुए पर्वत के समान विशालकाय वृत्र को देखा! वह राक्षस पाँच सौ योजन ऊँचा था और कुछ अधिक तीन सौ योजन उसकी मोटाई थी। उस राक्षस का वैसा रूप देखकर देवता लोग डर गये।
वृत्रासुर ने बल की प्राप्ति के लिये ही साठ हजार वर्षों तक तप किया था और तब ब्रह्मा जी ने इसे मनोवांछित वर दिया था। उन्होंने इसे योगियों की मिहिमा, महामायावीपन, महान बल-पराक्रम तथा सर्वश्रेष्ठ तेज प्रदान किया। उनमें सर्वत्र गमन करने की शक्ति थी। उनके अतिरिक्त वह अनेक प्रकार की मायाओं का सुविख्यात ज्ञाता भी था। वे श्रेष्ठ असुर तीनों लोकों के लिये दुर्जय थे। उनका वध इन्द्र ने अपने महान वज्र के प्रहार से किया था। उनकी सहायता भगवान शिव और भगवान विष्णु ने भी की थी।
रक्तबीज
देवी भागवत के स्कन्द 4 में वर्णित है के किसी समय शंकर जी ने उस दानव रक्तबीज को एक अद्भुत वर दे डाला। वर के अनुसार, उस दानव के शरीर से जब रक्त की बूंद पृथ्वी पर गिरती थी, तब उसी के रूप तथा प्राकरम वाले दानव तुरंत उत्पन्न हो जाते थे। उस वरदान के कारण अभिमान में भरा हुआ वह दैत्य कुपित होकर कालिका समेत अंबिका को मरने के लिए बड़े वेग से रणभूमि में पहुंचा। तब वहाँ विद्यमान समस्त शक्तियों से उसका युद्ध हुआ। उन शक्तियों के प्रहार से जब वो घायल होता और उसका रक्त भूमि पर गिरता, तो समान रूप के ही अनेकों रक्तबीज उत्पन्न हो जाते।
इस प्रकार उस रुधिर-राशि से उत्पन्न रक्तबीजों से सारा जगत भर गया। तब भगवती अंबिका ने माँ काली से कहा- “हे चामुंडे, तुम शीघ्रतापूर्वक अपना मुख पूर्ण रूप से फैला लो और मेरे शस्त्राघात के द्वारा रक्तबीज के शरीर से निकले रक्त को जल्दी-जल्दी पीती जाओ। तुम दानवों का भक्षण करती हुई युद्धभूमि में विचरण करो। मैं तीक्षण बाणों, गदा, तलवार तथा मूसलों से इन दैत्यों को मार डालूंगी।” इस प्रकार माँ भगवती ने जब सभी कृत्रिम रक्तबीजों का भक्षण कर लिया, तब जो वास्तविक रक्तबीज था, उसे मारकर उन्होंने खड्ग से उसके अनेक टुकड़े कर दिए।
त्रिपुरासुर
भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया, उन्होने हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा।
ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो, तीनों ने खूब विचार कर, ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजित् नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित् अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो।
ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु, अंत में त्रिदेवों एवं अन्य देवों द्वारा वैसे रथ और बान की व्यवस्था की गयी , तब भगवान शिव ने पाशुपतास्त्र से संयुक्त करके तीनों पुरों के एकत्र होने का चिन्तन किया, उस समय उस श्रेष्ठ बाण के छूटते ही भूतल पर गिरते हुए उन तीनों पुरों का महान चित्कार प्रकट हुआ। भगवान ने उन असुरों को भस्म करके पश्चिम समुद्र में डाल दिया। इस प्रकार महेश्वर ने उन तीनों पुरों तथा उनमें निवास काने वाले दानवों को दग्ध कर दिया
भंडासुर
ब्रह्मांड पुराण के उत्तर भाग में , त्रिपुर सुन्दरी के प्रसिद्ध आख्यान जिसे ‘ललितोपाख्यान’ कहा जाता है, उसका वर्णन, उसी में भंडासुर उद्भव कथा भी है, इसके अनुसार जब भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था, तो एक समय चित्रकर्मा, जो रुद्र गणों का नेतृत्व करते हैं, उन्होने ने खेल खेल में कामदेव की भस्म हुई राख़ से एक गुड़िया बनाई, जैसे ही उस गुड़िया को वो भगवान शिव के समीप ले गया उसमें जान आ गयी, और उसने एक बालक का रूप ले लिया, चित्रकर्मा ने उस बालक को शत रुद्रीय मंत्र का उपदेश दिया और उसे तपस्या करने के लिए कहा ,
तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव वहाँ प्रकट हुए और उसने मांगा, जो कोई भी मेरे विरुद्ध युद्ध करे तो उसका आधा बल क्षीण हो जाये, और वह आधा बल मुझमें आ जाए , उस समय मेरे शत्रु का कोई भी अस्त्र मुझे बांध न पाये, इस बीच, कामदेव की राख़ से विशुक्र और विशंग का जन्म हुआ, उसी राख़ से और भी कई राक्षस उत्पन्न हुए, ऐसा करते भंडासुर ने 300 अक्षौनी की एक शक्तिशाली सेना बना ली थी, इसी के वध के लिए ललिता त्रिपुर सुंदरी की उत्पत्ति हुई थी ,
देवी ललिता और भंडासुर के बीच महान युद्ध हुआ था , उस राक्षस ने अपनी शक्ति और माया से 10 दिव्य अस्त्र माता की और चलाये थे, जिनसे अर्णव, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप, असुर राज बली, कार्तवीर्य अर्जुन, रावण और काली नामक अन्य कई विख्यात राक्षस उत्पन्न हो गए, इनके तोड़ के लिए देवी ललिता ने अपनी 10 उँगलियों के नाखूनों से भगवान विष्णु के 10 अवतारों को उत्पन्न कर दिया था जैसे के मत्स्य, वामन, कूर्म वराह, नरसिम्ह , परशुराम, राम लक्ष्मण , कृष्ण बलराम, कल्कि अवतार, आदि , और अंत में देवी ललिता ने महाकमेश्वर नामक दिव्यास्त्र से उस शक्तिशाली राक्षस भंडासुर का वध किया था