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भगवान गणेश की कथा: उत्पत्ति, अस्त्र-शस्त्र और महिमा
परिचय
भगवान गणेश की कथा उनकी उत्पत्ति, शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र, उनके अष्ट अवतार और पौराणिक लीलाओं का विस्तृत वर्णन। जानिए कैसे बने गणेश जी विघ्नहर्ता और प्रथम पूजनीय
हर शुभ कार्य से पूर्व जिस पूजनीय की सर्वप्रथम पूजा होती है, जिसके स्मरणमात्र से समस्त विघ्न नष्ट हो जाते हैं, तथा जो पुण्य की राशिस्वरूप हैं, वह हैं भगवान शिव और माता पार्वती के प्रिय पुत्र गणपती जी। वह बुराइयों और बाधाओं का नाश करने वाले तथा सफलता के भगवान हैं। उन्हें शिक्षा, ज्ञान, बुद्धि और धन के देवता के रूप में भी जाना जाता है।

क्या आप जानते हैं कि भगवान गणेश कितने शक्तिशाली हैं? वे कौन से अस्त्र-शस्त्र धारण करते हैं? और उनकी उत्पत्ति व महिमा से जुड़ी कौन-कौन सी पौराणिक कथाएँ हैं? आइए, इस विस्तृत लेख में भगवान गणेश की कथा को विस्तार से जानते हैं।
भगवान गणेश की उत्पत्ति: विभिन्न पौराणिक कथाएँ
कल्प भेद के कारण भगवान गणेश जी की उत्पत्ति की कथा में हमें थोड़ा अंतर मिलता है, जो उनकी अलौकिक लीलाओं को दर्शाता है:
1. शिव पुराण के रुद्र संहिता – कुमार खंड के अनुसार
एक समय माता पार्वती की सखियाँ जया और विजया उनसे कहती हैं, ‘सखी’! सभी गण तो भगवान रुद्र के ही हैं, नंदी, भृंगी आदि जो हमारे हैं वे भी शिव के ही आज्ञा पालन में तत्पर रहते हैं। अतः आपको भी हमारी सेवा और सुरक्षा के लिए एक गण की रचना करनी चाहिए। कुछ समय उपरांत, पार्वती देवी ने अपने शरीर की मैल से एक ऐसे चेतन पुरुष का निर्माण किया जो सम्पूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त था। देवी ने आशीर्वाद देकर कहा – “तुम मेरे पुत्र हो, मेरे अपने ही हो। तुम्हारे समान प्यारा मेरा यहाँ कोई दूसरा नहीं है। आज से तुम मेरे द्वारपाल हो जाओ।”

2. ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणपतिखंड के अनुसार
इस कथा के अनुसार, पार्वती जी ने भगवान शंकर जी से एक श्रेष्ठ पुत्र के लिए प्रार्थना की। इस पर महादेव जी ने पार्वती जी से कहा, “तुम श्रीहरी (भगवान विष्णु) की आराधना करके ‘पुण्यक’ नामक एक वर्ष तक चलने वाला व्रत आरंभ करो।” महादेव जी ने बताया कि यह व्रत सम्पूर्ण व्रतों में श्रेष्ठ है और इसके पालन से ही उन्हें सम्पूर्ण वस्तुओं का सार रूप पुत्र प्राप्त होगा। इस प्रकार, पार्वती जी को गणेश जी के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
3. पद्म पुराण के सृष्टि खंड के अनुसार
पद्म पुराण के अनुसार, एक समय पार्वती जी ने सुगंधित तेल और चूर्ण से अपने शरीर में उबटन लगवाया। उससे जो मैल गिरा, उसे हाथ में उठाकर उन्होंने एक पुरुष की आकृति बनाई, जिसका मुख हाथी के समान था। फिर खेल करते हुए पार्वती जी ने उसे गंगा जी में डाल दिया। जल में पड़ते ही वह पुरुष बढ़कर विशालकाय हो गया। पार्वती देवी ने उसे पुत्र कहकर पुकारा, और देवताओं ने उन्हें ‘गंगेय’ कहकर सम्मानित किया। इस प्रकार, गजानन देवताओं के द्वारा पूजित हुए, और ब्रह्मा जी ने उन्हें गणों का आधिपत्य (गणपति) प्रदान किया।
4. लिंग पुराण के अनुसार
लिंग पुराण में वर्णित है कि एक बार देवताओं ने भगवान शिव की उपासना करके उनसे दानवों के दुष्टकर्मों में विघ्न उपस्थित करने के लिए वर मांगा। भगवान शिव ने ‘तथास्तु’ कहकर देवताओं की प्रार्थना स्वीकार की। समय आने पर गणेश जी का प्राकट्य हुआ। उनका मुख हाथी के समान था और उनके एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे में पाश (फंदा) था।
गणेश जी के मस्तक कटने और गजमुख प्राप्त करने की कथाएँ
भगवान गणेश जी के मस्तक कट जाने की कथा का वर्णन मुख्य रूप से दो पुरानों में मिलता है, जो उनके गजमुख प्राप्त करने के रहस्य को उजागर करती हैं:
1. ब्रह्मावैवर्त पुराण के गणपतिखंड के अनुसार
जब बालक गणेश का जन्म हुआ और श्रीहरी, ब्रह्मा जी सहित समस्त देव उन्हें देखने पधारे, तब सूर्यपुत्र शनिदेव भी शंकरनन्दन गणेश को देखने के लिए वहाँ आए। शनिदेव ने अपना मुख नीचे झुका रखा था। जब पार्वती जी ने इसका कारण पूछा, तो शनिदेव ने उन्हें मिले श्राप के बारे में बताया कि वह जिसकी ओर दृष्टि करते हैं, वह नष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा, “माता! इसी कारण मैं किसी वस्तु को अपने नेत्रों से नहीं देखता और तभी से मैं जीवहिंसा के भय से स्वाभाविक ही अपने मुख को नीचे किए रहता हूँ।”
शनैश्चर की बात सुनकर पार्वती जी हँसने लगीं, और शनि देव से आग्रह किया कि वे उनकी और बालक की ओर देखें। शनि की दृष्टि पड़ते ही शिशु का मस्तक धड़ से अलग हो गया। बालक का रक्त से लथपथ सारा शरीर पार्वती जी की गोद में पड़ा रह गया, परंतु मस्तक अपने अभीष्ट गोलोक में जाकर श्रीहरी में विलीन हो गया। यह दृश्य देखकर वहाँ उपस्थित सभी देवता, देवियाँ, शिव तथा कैलासवासी आश्चर्यचकित हो गए।

यह देख, श्री हरी गरुड़ पर सवार हो उत्तर दिशा में स्थित पुष्पभद्रा के निकट गए। वहाँ उन्होंने एक गजेंद्र (हाथी) को देखा जो अपने बच्चों से घिरकर हथिनी के साथ सो रहा था। श्री हरी ने उसका मस्तक सुदर्शन चक्र से काट लिया और वापिस कैलाश पहुँचकर उस हाथी के मस्तक को बालक के धड़ से जोड़ दिया और उसे जीवित कर दिया।
2. शिव पुराण के रुद्र संहिता के अनुसार (श्वेत कल्प की कथा)
यह कथा शिव पुराण के रुद्र संहिता में मिलती है। इसके अनुसार, जब माता पार्वती ने भगवान गणेश का निर्माण किया था, तब वह गणेश जी से बोलीं, “आज से तुम मेरे द्वारपाल हो जाओ। मेरी आज्ञा के बिना कोई भी महल के भीतर प्रवेश न कर पाए, चाहे वह कोई भी हो।” ऐसा कहकर पार्वती जी ने गणेश जी के हाथ में एक छड़ी दे दी।
तभी वहाँ भगवान शिव का आगमन हुआ। गणेश जी उन पार्वती पति को पहचानते तो थे नहीं, अतः बोल उठे, “देव, माता की आज्ञा के बिना तुम अभी भीतर न जाओ।” शिव जी बोले, “मूर्ख! तू किसे रोक रहा है? दुर्बुद्धि! क्या तू मुझे नहीं जानता? मैं शिव के अतिरिक्त और कोई नहीं हूँ।” फिर महेश्वर के गण वहाँ पहुँचे और गणेश जी से बोले, “क्यों व्यर्थ अपनी मृत्यु बुला रहे हो, तुम स्वतः ही दूर हट जाओ।” फिर भी गणेश जी निर्भय ही वहाँ बने रहे और उन्होंने शिवगणों को फटकारा तथा दरवाजे को नहीं छोड़ा।
तब शिवगणों ने शिव जी के पास जाकर सारा वृत्तांत सुनाया। पहले तो भगवान शिव क्रोधित हुए, फिर शिवगणों से बोले, “जाओ पता लगाओ कि यह कौन है।” शिवगणों ने पता लगाकर बताया कि वह श्री गिरिजा के पुत्र हैं। तब लीलास्वरूप शंकर ने विचित्र लीला करने की इच्छा से गणों और देवताओं को बुलाकर गणेश जी से भीषण युद्ध करवाया। पर वह कोई भी गणेश जी को पराजित न कर सके। गणपती जी ने उन सभी देवों को शिव गणों सहित अकेले ही पराजित कर दिया।
तब स्वयं महेश्वर आए। गणेश जी ने माता के चरणों का स्मरण किया। सभी देवता शिव जी के पक्ष में आ गए। वहाँ घोर युद्ध हुआ, अंततः महेश्वर ने अपने त्रिशूल से गणेश जी का सिर काट दिया। यह समाचार पाकर माता पार्वती अत्यंत क्रुद्ध हो गईं और बहुत सी शक्तियों को उत्पन्न करके उन्होंने बिना विचारे उन्हें प्रलय करने की आज्ञा दे दी। उन शक्तियों का वह तेज सभी दिशाओं को दग्ध करने लगा।
तब समस्त देवों और ऋषियों ने देवी की स्तुति की और उनसे क्षमा करने को कहा। बहुत सी याचनाओं के उपरांत देवी प्रसन्न हुईं और बोलीं, “यदि मेरा पुत्र जीवित हो जाए और वह तुम लोगों के मध्य पूजनीय मान लिया जाए तो संहार नहीं होगा। जब तुम लोग उसे सर्वाध्यक्ष का पद प्रदान कर दोगे तभी लोकों में शांति होगी।” तत्पश्चात वह सभी देव उदास हो भगवान शिव के पास पहुँचे और उनसे इसका निवारण करने को कहा।
शिव जी बोले, “जिस प्रकार सारी त्रिलोकी को सुख मिल सके वही करना चाहिए। अतः अब तुम उत्तर दिशा की ओर जाओ और जो पहला जीव मिले उसी का सिर काटकर ले आओ।” उन देवताओं को एक दांतवाले हाथी मिला। उन्होंने उस हाथी का सिर लाकर गणेश जी के धड़ से जोड़ दिया। इसके उपरांत, वह बालक शिवेच्छा से शीघ्र ही चेतनायुक्त होकर जीवित हो गया।

तब वहाँ पार्वती जी ने गणेश जी को वरदान देते हुए कहा कि अब से संपूर्ण देवताओं में तुम्हारी अग्र पूजा होगी और तुम्हें कभी दुख का सामना नहीं करना पड़ेगा। भगवान शिव ने गणेश जी को गोद में बैठाकर कहा, “यह मेरा दूसरा पुत्र है,” और उन्हें उत्तम वर प्रदान करते हुए कहा, “सुरवारों, जैसे त्रिलोकी में हम तीनों देवों की पूजा होती है उसी तरह तुम सबको इन गणेश का भी पूजन करना चाहिए।
मनुष्यों को चाहिए की पहले इनकी पूजा करके तत्पश्चात हम लोगों का पूजन करें। ऐसा करने से हम लोगों की पूजा सम्पन्न हो जाएगी। यदि ऐसा न किया तो पूजन का फल नष्ट हो जाएगा।” तदनन्तर, ब्रह्मा, विष्णु और शंकर आदि सभी देवताओं ने गणेश जी को सर्वाध्यक्ष घोषित कर दिया।
भगवान गणेश का विवाह और उनके पुत्र
शिव पुराण रुद्र संहिता के अनुसार भगवान गणेश का विवाह प्रजापति विश्वरूप की दो कन्याओं से हुआ था जिनका नाम था सिद्धि और बुद्धि। गणेश जी को उन दोनों पत्नियों से दो दिव्य पुत्र उत्पन्न हुए थे। सिद्धि के गर्भ से क्षेम और बुद्धि के गर्भ से लाभ का जन्म हुआ।
कश्यप ऋषि का श्राप: मस्तक कटने का एक और कारण
ब्रह्मा वैवर्त पुराण के अनुसार, भगवान शिव द्वारा भगवान गणेश का मस्तक काटने का एक कारण ऋषि कश्यप का श्राप भी था। कथा है कि एक बार भगवान शिव ने अपने त्रिशूल के प्रहार से सूर्य देव को लगभग मार ही डाला था। उसी से क्रोधित होकर कश्यप जी ने शिव जी को श्राप दिया था, “जिस प्रकार तुमने मेरे पुत्र को क्षति पहुंचाई है, वैसी ही क्षति तुम अपने पुत्र को भी पहुंचाओगे।”
गणेश जी और परशुराम: एकदंत का रहस्य
ब्रह्मा वैवर्त पुराण के ही अनुसार, एक समय परशुराम जी भगवान शिव से मिलने कैलाश पहुँचे। उस समय शिव जी तपस्या में लीन थे, तो गणेश जी ने परशुराम जी को उनसे मिलने नहीं दिया। परशुराम जी ने क्रोधित होकर भगवान गणेश पर शिव का ही दिया हुआ फरसा चला दिया। चूँकि वह उनके पिता भगवान शिव का दिया हुआ शस्त्र था, तो गणेश जी उस शस्त्र के प्रहार को विफल नहीं होने देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उस फरसे का प्रहार अपने ऊपर ले लिया, जिससे उनका एक दाँत टूट गया। तभी से वह एकदंत कहलाए।
महाभारत के लेखक भगवान गणेश
श्री गणेश जी ही महाकाव्य महाभारत के मूल लेखक हैं जिसे महर्षि वेद व्यास जी ने सुनाया था। वेद व्यास जी ने जब महाभारत की रचना करने का विचार किया तो उन्हें एक ऐसे लेखक की आवश्यकता थी जो उनकी तीव्र गति से बोली गई कथा को लिख सके। तब उन्होंने गणेश जी से प्रार्थना की, और गणेश जी ने शर्त रखी कि वे बिना रुके लिखेंगे, यदि वेद व्यास जी बिना रुके बोलते रहें। इसी शर्त पर गणेश जी ने महाभारत का लेखन कार्य किया।
त्रिपुरासुर वध में गणेश जी की भूमिका
शिव पुराण रुद्र संहिता के पंचम खंड के अनुसार – जब भगवान शिव ने त्रिपुरासुर के वध हेतु अपने परम दिव्य धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई, तो बाण धनुष से नहीं निकला। इस समय जब बाण बहुत समय तक नहीं निकला तो वहाँ आकाशवाणी हुई, “हे ऐश्वर्यशाली शिवशंकर! जब तक आप गणेश जी का पूजन नहीं करेंगे तब तक त्रिपुरों का संहार नहीं कर पाएंगे।” तब भगवान शिव ने वहाँ भद्रकाली को बुलाया और विधि विधान से सबसे मिलकर अग्रपूज्य भगवान गणेश का पूजन संपन्न किया। ऐसा करने के बाद भगवान शिव त्रिपुरों को ध्वस्त करने में सफल हुए थे। यह घटना गणेश जी की ‘अग्रपूज्य’ होने की महत्ता को दर्शाती है।
भगवान गणेश के 8 दिव्य अवतार (अष्ट विनायक)
गणेश पुराण के अनुसार, गणपती जी ने अब तक 8 अवतार धारण किए हैं, जो इस प्रकार हैं:
- वक्रतुंड: (राक्षस मत्सरासुर के वध के लिए)
- एकदंत: (मदसुर को पराजित करने के लिए)
- महोदर: (मोहासुर को हराने के लिए)
- गजानन: (लोभासुर को समाप्त करने के लिए)
- लंबोदर: (क्रोधासुर का संहार करने के लिए)
- विकट: (कामासुर को नियंत्रित करने के लिए)
- विघ्नराज: (ममासुर और अहंकारसुर को पराजित करने के लिए)
- धूम्रवर्ण: (अभिमानासुर पर विजय प्राप्त करने के लिए)
यह भगवान गणेश के अष्ट विनायक हैं, और प्रत्येक अवतार एक अलग कथा से जुड़ा है। इन अवतारों का मुख्य उद्देश्य मानव के भीतर मौजूद काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, अहंकार, अज्ञान और आसक्ति जैसे नकारात्मक गुणों को दूर करना था।
हेरम्ब गणपति: पंचमुखी स्वरूप
हेरम्ब गणपति, श्री गणेश जी के पांच मुख वाले रूप के रूप में जाना जाता है — इनका वाहन सिंह है, जो उन्हें माता पार्वती जी से प्राप्त हुआ था। सिंह पर सवार पंचमुखी भगवान गणपति के इस विग्रह की पूजा तंत्र साधना में विशेष रूप से प्रचलित है, और यह स्वरूप शक्ति और निर्भयता का प्रतीक है।
भगवान गणेश के प्रमुख अस्त्र-शस्त्र
भगवान गणेश जी कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र धारण करते हैं, जो उनकी शक्ति और विध्नहर्ता स्वरूप को दर्शाते हैं:

- हथोड़ा: भगवान गणेश जी के पास भगवान कार्तिकेय द्वारा दिया गया एक हथोड़ा रहता है।
- धनुष और बाण: गणेश जी धनुष और बाण भी धारण करते हैं। स्कन्द पुराण के सृष्टि खंड के अनुसार, गणेश जी ने इसी धनुष और बाणों का उपयोग कर त्रिपुरासुर के पुत्रों को पराजित किया था।
- पाश (रस्सी): गणेश जी के साथ एक फंदे के रूप में एक रस्सी भी रहती है, जिसे पाश भी कहा जाता है। इसी पाश का उपयोग कर भगवान गणेश ने गजमुखासुर की सेना को बांध दिया था।
- खड़ग (तलवार): गणपती जी के पास एक शक्तिशाली खड़ग भी है, जिसका उपयोग कर उन्होंने कितने ही असुरों का वध किया था।
- लोहे की दिव्य छड़ी: यह छड़ उन्हें माता पार्वती से मिली थी, और इसी का उपयोग कर उन्होंने शिवगणों को पराजित किया था।
- फरसा: उनके पास एक शक्तिशाली फरसा भी है, जिसका उपयोग उन्होंने विभिन्न युद्धों में किया।
गणेश जी का वाहन: मूषक
भगवान गणेश मूषक की सवारी करते हैं, जो पहले गजमुखासुर नामक एक शक्तिशाली राक्षस था। गणेश जी ने इस राक्षस को पराजित कर उसे अपना वाहन बनाया, यह दर्शाता है कि वे कैसे अहंकार और बुराई को नियंत्रित कर सकते हैं और उन्हें शुभ ऊर्जा में बदल सकते हैं।
निष्कर्ष
भगवान गणेश की गाथा को एक लेख में समेट पाना बड़ा कठिन कार्य है। हमने उनके जीवन के मुख्य बिन्दुओं, उनकी उत्पत्ति, उनके दिव्य अस्त्र-शस्त्र और उनके विभिन्न स्वरूपों को बताने का प्रयास किया है। भगवान गणेश का जीवन हमें ज्ञान, बुद्धि, समर्पण और बाधाओं को दूर करने की प्रेरणा देता है।
अगर आप उनके अष्ट विनायक अवतारों पर विस्तार से जानना चाहते हैं, या उनके जीवन की किसी और घटना पर विस्तृत जानकारी चाहते हैं, तो हमें कमेंट बॉक्स में अवश्य बताइएगा।
आप सभी को गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएँ! आशा करते हैं भगवान गणेश की कथा आपको पसंद आई होगी
