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दत्तात्रेय भगवान के 7 सबसे शक्तिशाली शिष्य | दत्तात्रेय के शिष्य | Lord Dattatreya 7 Powerful Disciples
दत्तात्रेय के शिष्य कौन थे : त्रिमूर्ति अवतार भगवान दत्तात्रेय जिन्हें ब्रह्मा, और महेश का संयुक्त अवतार माना जाता है, वे अपने ज्ञान और शक्ति से न केवल स्वयं महान थे, बल्कि उतने ही महान थे दत्तात्रेय के शिष्य । उन्होंने अपने शिष्यों को न केवल आध्यात्मिक ज्ञान दिया, बल्कि उन्हें अद्वितीय सिद्धियाँ भी प्रदान कीं। कौन थे वो दत्तात्रेय के शिष्य, और कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त की थीं उन्होंने दत्तात्रेय जी से? आइए, विस्तार से जानते हैं दत्तात्रेय के पाँच सबसे शक्तिशाली शिष्यों की अद्भुत गाथाएँ।
दत्तात्रेय के शिष्य
1. कार्तवीर्य अर्जुन
कार्तवीर्य अर्जुन, जिसे सहस्रबाहु अर्जुन के नाम से भी जाना जाता है, भगवान दत्तात्रेय के प्रमुख शिष्यों में से एक थे।
कार्तवीर्य अर्जुन का दत्तात्रेय जी से शिक्षा तथा वरदान प्राप्ति का वर्णन ब्रह्मांड पुराण और हरिवंश पुराण में थोड़ा भिन्न है।
- ब्रह्मांड पुराण: महाराज कार्तवीर्य ने अपनी महारानी के साथ नर्मदा तट पर विधिवत “भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ” का धार्मिक आयोजन किया। यज्ञ समापन के पश्चात् राजा के गुरु भगवान दत्तात्रेय प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा से वरदान मांगने के लिए कहा।
- हरिवंश पुराण: कार्तवीर्य अर्जुन ने 10 हज़ार वर्षों तक अत्यंत दुष्कर तपस्या कर दत्तात्रेय जी की आराधना की। इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान दत्तात्रेय ने अर्जुन को चार वरदान दिए:
- युद्धरत होने पर मेरी सहस्त्र भुजाएँ हो जाएँ।
- यदि कभी मैं अधर्म कार्य में प्रवृत्त होऊँ, तो साधु पुरुष आकर मुझे रोक दें।
- मैं युद्ध के द्वारा पृथ्वी को जीतकर धर्म का पालन करते हुए प्रजा को प्रसन्न रखूँ।
- मैं बहुत से संग्राम करके सहस्त्रों शत्रुओं को मौत के घाट उतारकर संग्राम के मध्य अपने से अधिक शक्तिशाली द्वारा वध को प्राप्त होऊँ।
इन वरदानों के फलस्वरूप युद्ध की कल्पना मात्र से अर्जुन की एक सहस्त्र भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं। उनके बल पर उन्होंने सहस्त्रों शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया और द्वीप, समुद्र, नगरों सहित पृथ्वी को युद्ध के द्वारा जीत लिया। संसार का कोई भी सम्राट पराक्रम, विजय, यज्ञ, दान, तपस्या, योग, शास्त्रज्ञान आदि गुणों में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकता था। उन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग धर्म और न्याय की रक्षा के लिए किया। हालांकि, उनकी शक्ति के कारण वे अहंकारी हो गए थे, जिसके परिणामस्वरूप परशुराम जी ने उनका वध किया और उनकी अहंकारिता को समाप्त किया।
2. राजा अलर्क
काशीराज महाराज के आगे अपना सब कुछ गंवाने के पश्चात राजा अलर्क दत्तात्रेय जी की शरण में पहुंचे थे।
दत्तात्रेय और राजा अलर्क के बीच संवाद का विवरण योगवाशिष्ठ, त्रिपुरा रहस्य तथा मार्कण्डेय पुराण आदि जैसे ग्रंथों में बड़े विस्तार से मिलता है। दत्तात्रेय जी ने अलर्क को यम-नियम, ओमकार, शुद्धता तथा ब्राह्मण का अर्थ समझाया था।
दत्तात्रेय जी ने राजा अलर्क को जो ज्ञान दिया वो संक्षेप में इस प्रकार है:
- वैराग्य और आत्म-नियंत्रण: संसार के भोग और भोग्य वस्तुओं के प्रति आकर्षण आत्मा के विकास में बाधा डालते हैं। इच्छाओं को नियंत्रित करना और वैराग्य अपनाना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- अहंकार और ममत्व का त्याग: अहंकार और ममत्व आत्मा की सच्ची प्रकृति को पहचानने में बाधक होते हैं।
- स्वाध्याय और साधना: नियमित स्वाध्याय और साधना आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक हैं।
- जीवन की अनित्यता और मोक्ष की खोज: जीवन क्षणिक है, इसे समझना मोक्ष की दिशा में पहला कदम है।
- गुरु की महत्ता: गुरु के मार्गदर्शन में ही सच्चे ज्ञान की प्राप्ति संभव है।
3. प्रह्लाद
दत्तात्रेय जी ने प्रह्लाद को जो ज्ञान प्रदान किया, वह न केवल भक्ति और आत्म-साक्षात्कार के महत्व पर केंद्रित था, बल्कि जीवन के अनेक पहलुओं को भी छूता है। मार्कण्डेय पुराण और अन्य ग्रंथों में दत्तात्रेय और प्रह्लाद के संवाद का उल्लेख मिलता है। इसमें निम्नलिखित शिक्षाएँ प्रमुख हैं:
- भक्ति और आत्म-समर्पण: भक्ति और आत्म-समर्पण से ही व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति हो सकती है।
- असुरत्व का त्याग: अधर्म और हिंसा से दूर रहना चाहिए।
- संतोष और संयम: संतोष सच्ची संपत्ति है और संयम के बिना जीवन में किसी भी प्रकार की प्रगति संभव नहीं है।
- वैराग्य और सांसारिक मोह का त्याग: संसार के भौतिक सुख और मोह-माया आत्म-साक्षात्कार से दूर रखते हैं।
- परमात्मा की सर्वव्यापकता: परमात्मा हर जगह विद्यमान है।
4. परशुराम
भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाते हैं। दत्तात्रेय जी ने परशुराम जी को जो ज्ञान दिया, उसने उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सर्वप्रथम श्री दत्तात्रेय ने उन्हें देवी त्रिपुरा महात्म्य के बारे में बताया। फिर उन्होंने परशुराम जी को तपस्या करने के लिए महेंद्र पर्वत पर जाने की अनुमति दी। वहाँ परशुराम जी ने बारह वर्षों तक देवी त्रिपुरा जी की आराधना की।
दत्तात्रेय जी से परशुराम जी को प्राप्त शिक्षाएँ इस प्रकार हैं:
- आध्यात्मिक ज्ञान और तपस्या: तपस्या से शरीर और मन को नियंत्रित किया जा सकता है, जिससे आत्मा की शुद्धि होती है।
- ध्यान और योग: ध्यान और योग की विधियाँ आत्मा की गहनता को समझने में सहायक होती हैं।
- अहंकार और क्रोध का त्याग: अहंकार और क्रोध आत्मा की शांति को भंग करते हैं।
- धर्म और कर्तव्य का पालन: धर्म और न्याय का पालन करना चाहिए, और दूसरों की सेवा में समर्पित होना चाहिए।
5. यदु
वे चंद्रवंश के पहले राजा और भगवान कृष्ण के पूर्वज माने जाते हैं। यदु को दत्तात्रेय जी ने प्रकृति और पुरुष का भेद, आत्म-स्वरूप का ज्ञान, ध्यान और आत्मसाक्षात्कार तथा वैराग्य का ज्ञान दिया था, जिनका वर्णन बहुत से पुराणों में मिलता है।
- भागवत पुराण: यदु और दत्तात्रेय के संवाद का वर्णन मिलता है, जहाँ दत्तात्रेय ने यदु को आत्मज्ञान और अद्वैत वेदांत की शिक्षाएँ दीं।
- महाभारत: यदु और दत्तात्रेय के संवादों में आत्मा और माया के भेद का वर्णन मिलता है।
6. राजा आयु
दत्तात्रेय ने राजा आयु को आत्मज्ञान और धर्म के महत्वपूर्ण सिद्धांतों की शिक्षा दी। राजा आयु, सूर्यवंशी राजा थे और उन्हें दत्तात्रेय जी ने आत्मसंयम, आत्मा का स्वरूप और उसकी अद्वैतता, धर्म और कर्तव्य, तथा प्रकृति और आत्मा के भेद को समझाया था। उन्होंने बताया कि आत्मा अद्वितीय और अनन्त है, जबकि प्रकृति अस्थायी और परिवर्तनीय है। आत्मज्ञान के माध्यम से व्यक्ति इस भेद को समझ सकता है।
7. समवर्त ऋषि
दत्तात्रेय ने समवर्त ऋषि को आत्मज्ञान और योग की गहन शिक्षा दी थी। समवर्त ऋषि, जो बृहस्पति के छोटे भाई थे, उन्होंने दत्तात्रेय जी के चरणों में बैठकर आत्म-साक्षात्कार की उच्चतम स्थितियों को प्राप्त किया।
दत्तात्रेय के शिष्य और भी थे परंतु हमने केवल सात के बारे में ही इस लेख में चर्चा की है, धन्यवाद
जय श्री गुरु भगवान दत्तात्रेय जी की