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एकलव्य से जुड़े अनसुने तथ्य | How powerful was Eklavya ?
महाभारत में कौन था एकलव्य, कितना शक्तिशाली था वह, कितने युद्ध लड़े थे एकलव्य ने, कौन से अस्त्र शस्त्र थे उसके, क्या कर्ण और अर्जुन से भी अधिक पराक्रमी था एकलव्य, अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य कहाँ गया, एकलव्य की सम्पूर्ण कहानी हम आगे जानेंगे
Table of Contents
एकलव्य का जन्म
हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व अध्याय 34 के अनुसार देवश्रवा जो वसुदेव जी के भाई थे, उनके यहाँ ही एकलव्य का जन्म हुआ था, वह श्री कृष्ण के चचेरे भाई ही थे, किसी कारणवश बालकपन में ही देवश्रवा ने अपने उस बालक को त्याग दिया, तब देवश्रवा के उस पुत्र को निषादों ने पालकर बड़ा किया था, इसीलिए यह निषादवंशी एकलव्य के नाम से प्रसिद्ध हुए, और वह निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र के रूप में ही विख्यात हुए |
महाभारत के आदि पर्व के अनुसार एकलव्य क्रोधवश नामक असुरगणों का अंशावतार था
एकलव्य का गुरु कौन था
महाभारत के आदि पर्व अध्याय 131 के अनुसार जब गुरु द्रोण ने हस्तिनापुर में राजकुमारों को शिक्षा देनी आरंभ कर दी , तो उस समय द्रोणाचार्य का यह अस्त्र कौशल सुनकर सहस्रों राजा और राजकुमार धनुर्वेद की शिक्षा लेने के लिये वहाँ एकत्रित हो गये। ! तदनन्तर एकलव्य गुरु द्रोण के पास आया। परंतु उसे निषादपुत्र समझकर आचार्य ने धनुर्विद्या विषयक शिष्य नहीं बनाया
गुरु द्रोण ने क्यों नहीं बनाया उसे अपना शिष्य
कौरवों की ओर दृष्टि रखकर ही उन्होंने ऐसा किया। क्योंकि वह एक निषाद राजकुमार था, तो वहाँ आने से पूर्व ही वह कई युद्ध कलाओं में पहले से ही प्रशिक्षित था, उस समय उसकी आयु भी वहाँ उपस्थित सभी राजकुमारों से कहीं अधिक थी, एकलव्य एक निषाद थे , उनके पिता जरासंध के साथी थे, और वह जरासंध की ही विशाल सेना में एक सेनापति भी थे , जरासंध और उनके सहायक राज्य हस्तीनपुर तथा द्वारिका दोनों के ही शत्रु थे , ऐसे में गुरु द्रोण चाहकर भी शत्रु राजकुमार एकलव्य को शिक्षा नहीं दे सकते थे, और भीष्म जिनके अधीन उस समय हस्तीनपुर की कमान थी उनसे आज्ञा के बिना वह ऐसा नहीं कर सकते थे
एकलव्य ने स्वयं ही किया अभ्यास
जब गुरु द्रोण ने एकलव्य को शिक्षा देने से मना किया, तब एकलव्य ने द्रोणाचार्य के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और वन में लौटकर उनकी मिट्टी की मूर्ति बनायी तथा उसी में आचार्य की परमोच्च भावना रखकर उसने धनुर्विधा का अभ्यास प्रारम्भ किया। अभ्यास बल से उसने बाणों के छोड़ने, लौटाने और संधान करने में बड़ी अच्छी फुर्ती प्राप्त कर ली।
एकलव्य का बाणों से कुत्ते का मुंह बंद करना
एक दिन समस्त कौरव और पाण्डव शिकार खेलने के लिये निकले। उनके पीछे एक कुत्ता भी चला आया । वह कुत्ता वन में घूमता-घामता निषाद पुत्र एकलव्य के पास जा पहुँचा और उसपर भौंकने लगा। एकलव्य ने उस कुत्ते के मुख में एक ही साथ सात बाण मार उसका मुंह बाणों से भर दिया और वह उसी अवस्था में पाण्डवों के पास आया। उसे देखकर पाण्डव वीर बड़े विस्मय में पड़े। पांडवों ने सारा वृतांत गुरु द्रोण को बतलाया
गुरु द्रोण द्वारा गुरुदक्षिणा में उसका अंगूठा मांगना
सब सुनने के बाद आचार्य द्रोण एकलव्य के पास गये। गुरु द्रोण को समीप आते देख एकलव्य ने उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर माथा टेक दिया। तब द्रोणाचार्य ने एकलव्य से कहा ‘वीर! यदि तुम मेरे शिष्य हो तो मुझे गुरुदक्षिणा दो’। यह सुनकर एकलव्य बोला। भगवन्! मैं आपको क्या दूं? स्वयं गुरुदेव ही मुझे इसके लिये आज्ञा दें। तब द्रोणाचार्य ने उससे कहा- ‘तुम मुझे दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो’।
तब एकलव्य ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए बिना कुछ सोच-विचार किये अपना दाहिना अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया। द्रोणाचार्य एकलव्य को सत्यप्रतिज्ञ देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने संकेत से उसे यह बता दिया कि तर्जनी और मध्यमा के संयोग से बाण पकड़कर किस प्रकार धनुष की डोरी खींचनी चाहिये। तब से वह निषादकुमार अपनी अंगुलियों द्वारा ही बाणों का संधान करने लगा। उस अवस्था में वह उतनी शीघ्रता से बाण नहीं चला पाता था, जैसे पहले चलाया करता था।
अंगूठा कटने के बाद क्या हुआ उसका
इस घटना के उपरांत एकलव्य अपने राज्य वापिस लौट आया और वहीँ रहने लगे। पिता की मृत्यु के बाद उन्हे ही निषादों का राजा नियुक्त किया गया, उन्होने न केवल अपने राज्य का कुशलता से संचालन किया, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना भी गठित कर ली , जिसके बल पर वह अपने राज्य की सीमाओँ का भी विस्तार करने लगे , निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने भी जरासंध का साथ दिया वह भी जरासंध की सेना में एक मुख्य स्थान पर रहे |
जरासंध ने जब मथुरा की घेराबंधी की और श्री कृष्ण और बलराम जी से युद्ध लड़ा, तब भी एकलव्य ने जरासंध की सेना में अपना पूरा योगदान दिया था और उनके साथ मिलकर कई बार श्री कृष्ण को मारने का प्रयास किया, पर हर बार विफल हुआ , और जब श्री कृष्ण ने रुक्मिणी जी का हरण कर लिया था तो उस समय जरासंध और शिशुपाल अपनी सेना लेकर श्री कृष्ण का पीछा करने लगा, उन दोनों का साथ देने के लिए एकलव्य भी वहाँ था और वहाँ भी उनका श्री कृष्ण से युद्ध हुआ परंतु श्री कृष्ण को रोकने में वह सब विफल हुआ था
बलराम और एकलव्य का युद्ध
हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व अध्याय 98 के अनुसार, जब राजा पौंड्रक ने स्वयं को ही विष्णु का अवतार वासुदेव घोषित कर दिया था तब भगवान् श्रीकृष्ण, बलराम, सात्यकी आदि योद्धाओं का पौंडरक तथा उसके सहयोगी राजाओं के साथ युद्ध हुआ, वहाँ बलभद्र बलराम जी का युद्ध एकलव्य से हुआ था, वहाँ एकलव्य ने अपने बाणों द्वारा बलराम जी का धनुष काटते हुए उनको भी घायल कर दिया था , इसके उत्तर में बलराम जी ने भी उसके धनुष तथा अन्य हथयारों को काट डाला , इस प्रकार दोनों एक दूसरे पर प्रहार करते रहे
अंततः निषादराज एकलव्य ने घण्टियों से सुशोभित, एक शक्ति को बलराम जी की के ऊपर चलाया और भयंकर सिंहनाद किया। परंतु बलरामजी उस महाघोर शक्ति को हाथ से पकड़ लिया और फिर सबको विस्मय में डालते हुए बलराम जी ने उस शक्ति को एकलव्य की छाती पर चलाकर गहरी चोट पहुंचाई और वह व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़ा , फिर पुनः उठके एकलव्य ने गदा हाथ में लेकर बलराम जी की हँसली पर आघात किया,
तब क्रोध में भरे हुए बलराम जी ने अपनी महा भयंकर गदा को पकड़कर एकलव्य पर आक्रमण, यह देख एकलव्य भयभीत होकर समुद्र की और भागा , बलराम जी भी उसका पीछा करने लगे , तब समुद्र में घुसकर एकलव्य पाँच योजन दूर चला गया , और वहाँ बलराम जी से डरता हुआ ही निवास करने लगा, इस प्रकार बलराम जी ने एकलव्य पर विजय पायी
स्वयं श्री कृष्ण ने की एकलव्य की प्रशंसा
महाभारत के द्रोण पर्व अध्याय 181 श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं तुम्हारे हित के लिये ही द्रोणाचार्य ने सत्यपराक्रमी एकलव्य का आचार्यत्व करके छलपूर्वक उसका अँगूठा कटवा दिया था। सुदृढ़ पराक्रम से सम्पन्न अत्यन्त अभिमानी एकलव्य जब हाथों में दस्ताने पहनकर वन में विचरता, उस समय वह दूसरे परशुराम के समान जान पड़ता था। कुन्तीकुमार! यदि एकलव्य का अँगूठा सुरक्षित होता तो देवता, दानव, राक्षस और नाग- ये सब मिलकर भी युद्ध में उसे कभी परास्त नहीं कर सकते थे। फिर कोई मनुष्यमात्र तो उसकी ओर देख ही कैसे सकता था?
उसकी मुट्ठी मजबूत थी। वह अस्त्र-विद्या का विद्वान था और सदा दिन-रात बाण चलाने का अभ्यास करता था, अर्जुन! जरासंघ, शिशुपाल और महाबली एकलव्य यदि ये पहले ही मारे न गये होते तो इस समय बड़े भयंकर सिद्ध होते। दुर्योधन उन श्रेष्ठ रथियों से अपनी सहायता के लिये अवश्य प्रार्थना करता और वे हमसे सर्वदा द्वेष रखने के कारण निश्चय ही कौरवों का पक्ष लेते
एकलव्य की मृत्यु कैसे हुई
महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 48 में यह वर्णित है के निषादराज एकलव्य सदा भगवान श्री कृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा करते थे, जो दूसरों के लिए अजय था , परंतु वह श्री कृष्ण के हाथ से मारा जाकर प्राण शून्य हो सदा के रन शय्या में सो गया, श्री कृष्ण ने उसका सिर पत्थरों पर पटक पटक कर उसका वध कर डाला था |