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बलराम की मृत्यु कैसे हुई थी | Who killed Balarama in Mahabharata ?
आखिर भगवान आदिशेष के अवतार बलराम की मृत्यु कैसे हुई , किसने मारा था उन्हे ? उनके जीवन के अंतिम समय क्या हुआ श्री कृष्ण उस समय कहाँ थे ? और क्यों भगवान श्री कृष्ण ने उन्हे नहीं बचाया ? आइये बलराम की मृत्यु से जुड़ी एक एक घटना को विस्तार से जानते हैं
महर्षियों और गांधारी के श्राप का था बलराम की मृत्यु में बड़ा प्रभाव
यदुवंशियों का आपस में ही युद्ध
जब प्रभास क्षेत्र में प्रचण्ड तेजस्वी यादवों का महापान आरम्भ हुआ, श्रीकृष्ण के पास ही कृतवर्मा सहित बलराम, सात्यकि, गद और बभ्रु पीने लगे। उसके उपरांत, गांधारी और ब्राह्मणों के श्राप ने अपना प्रभाव दिखाना आरंभ किया। पीते-पीते सात्यकि, कृतवर्मा, प्रद्युम्न आदि यदुवंशी योद्धा मद से उन्मत्त हो उठे और एक दूसरे का उपहास उड़ाने लगे। काल की प्रेरणा से वे सब एक दूसरे को मारने लगे। सात्यकि तथा अपने पुत्र को मारा गया देख, यदुनन्दन श्रीकृष्ण ने कुपित होकर एक मुट्ठी एरका उखाड़ ली। उनके हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गई। फिर श्रीकृष्ण ने जो-जो सामने आए, उन्हें उसी मूसल से मार गिराया।
उस समय काल से प्रेरित हुए अन्धक, भोज, शिनि और वृष्णि वंश के लोगों ने उसी मूसल से एक-दूसरे को मारना आरम्भ किया। एक साधारण तिनका भी मूसल होकर दिखाई देता था। यह सब ब्राह्मणों के शाप का ही प्रभाव था। उस मूसल से पिता ने पुत्र और पुत्र ने पिता को मार डाला। वहाँ मारे जाने वाले किसी योद्धा के मन में वहाँ से भागने का विचार नहीं हुआ। कालचक्र के इस परिवर्तन को जानते हुए महाबाहु मधुसूदन वहाँ चुपचाप सब कुछ देखते रहे और मूसल का सहारा लेकर खड़े रहे।
श्रीकृष्ण ने जब अपने पुत्र साम्ब, चारुदेष्ण, प्रद्युम्न और पोते अनिरुद्ध को मारा हुआ देखा, तब उनकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो उठी। अपने छोटे भाई गद को रणशैय्या पर पड़ा देख वे अत्यन्त रोष से आगबबूला हो उठे। फिर श्रीकृष्ण ने उस समय शेष बचे हुए समस्त यादवों का संहार कर डाला। बभ्रु और दारुक ने उस समय यादवों का संहार करते हुए श्रीकृष्ण से कहा, “भगवान! अब सबका विनाश हो गया। इनमें से अधिकांश तो आपके हाथों मारे गए हैं। अब बलराम जी का पता लगाइए। अब हम तीनों उधर ही चलें, जिधर बलराम जी गए हैं।”
बलराम की मृत्यु ऐसे हुई थी
तदनन्तर दारुक, बभ्रु और भगवान श्रीकृष्ण तीनों ही बलराम जी के चरणचिह्न देखते हुए वहाँ चल दिए। थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अनन्त पराक्रमी बलराम जी को एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ देखा। उन महानुभाव के पास पहुँचकर श्रीकृष्ण ने तत्काल दारुक को आज्ञा दी, “तुम शीघ्र ही कुरु देश की राजधानी हस्तिनापुर में जाकर अर्जुन को यादवों के इस महासंहार का सारा समाचार कह सुनाओ। ब्राह्मणों के शाप से यदुवंशियों की मृत्यु का समाचार पाकर अर्जुन शीघ्र ही द्वारका चले आएं।”
दारुक के चले जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने निकट खड़े हुए बभ्रु से कहा, “आप स्त्रियों की रक्षा के लिए शीघ्र ही द्वारका को चले जाइए। कहीं ऐसा न हो कि डाकू धन की लालच से उनकी हत्या कर डालें।” श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर बभ्रु वहाँ से प्रस्थित हुए। वे मदिरा के मद से आतुर थे ही, भाई-बन्धुओं के वध से भी अत्यन्त शोक पीड़ित थे। वे श्रीकृष्ण के निकट अभी विश्राम कर ही रहे थे कि ब्राह्मणों के शाप के प्रभाव से उत्पन्न हुआ एक महान दुर्धर्ष मूसल किसी व्याध के बाण से लगा हुआ सहसा उनके ऊपर आकर गिरा। उसने तुरंत ही उनके प्राण ले लिए।
बभ्रु को मारा गया देख श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई से कहा, “भैया बलराम! आप यहीं रहकर मेरी प्रतीक्षा करें। जब तक मैं स्त्रियों को कुटुम्बीजनों के संरक्षण में सौंप आता हूँ।” यों कहकर श्रीकृष्ण द्वारिकापुरी में गए और वहाँ अपने पिता वसुदेव जी से बोले, “तात! आप अर्जुन के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए हमारे कुल की समस्त स्त्रियों की रक्षा करें।
इस समय बलराम जी मेरी राह देखते हुए वन के भीतर बैठे हैं। मैंने इस समय यह यदुवंशियों का विनाश देखा है और पूर्वकाल में कुरुकुल के श्रेष्ठ राजाओं का भी संहार देख चुका हूँ। अब मैं उन यादव वीरों के बिना उनकी इस पुरी को देखने में भी असमर्थ हूँ। वन में जाकर मैं बलराम जी के साथ तपस्या करूँगा।” ऐसा कहकर उन्होंने अपने सिर से पिता के चरणों का स्पर्श किया। फिर वे भगवान श्रीकृष्ण वहाँ से तुरंत चल दिए।
इतने ही में उस नगर की स्त्रियों और बालकों के रोने का महान आर्तनाद सुनाई पड़ा। विलाप करती हुई उन युवतियों के करुण क्रन्दन सुनकर श्रीकृष्ण पुनः लौट आए और उन्हें सांत्वना देते हुए बोले, “देखिए! नरश्रेष्ठ अर्जुन शीघ्र ही इस नगर में आने वाले हैं। वे तुम्हें संकट से बचाएंगे।” यह कहकर वे चले गए। वहाँ जाकर श्रीकृष्ण ने वन के एकांत प्रदेश में बैठे हुए बलराम जी का दर्शन किया।
बलराम की मृत्यु और श्री कृष्ण का भी पृथ्वी को त्यागना
बलराम जी योगयुक्त होकर समाधि लगाए बैठे थे। श्रीकृष्ण ने उनके मुख से एक श्वेत वर्ण के विशालकाय सर्प को निकलते देखा। उनसे देखा जाता हुआ वह महानुभाव नाग जिस ओर महासागर था, उसी मार्ग पर चल दिया। वह अपने पूर्व शरीर को त्याग कर इस रूप में प्रकट हुआ था। उसके सहस्रों मस्तक थे। उसका विशाल शरीर पर्वत के विस्तार-सा जान पड़ता था। उसके मुख की कान्ति लाल रंग की थी। समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर उस नाग का- साक्षात भगवान अनन्त का भली-भाँति स्वागत किया। दिव्य नागों और पवित्र सरिताओं ने भी उनका सत्कार किया।
कर्कोटक, वासुकि, तक्षक, पृथुश्रवा, अरुण, कुञ्जर, मिश्री, शंख, कुमुद, पुण्डरीक, महामना धृतराष्ट्र, ह्राद, क्राथ, शितिकण्ठ, उग्रतेजा, चक्रमन्द, अतिषण्ड, नागप्रवर दुर्मुख, अम्बरीष और स्वयं राजा वरुण ने भी उनका स्वागत किया। उपर्युक्त सब लोगों ने आगे बढ़कर उनकी अगवानी की, स्वागतपूर्वक अभिनन्दन किया और अर्घ्य-पाद्य आदि उपचारों द्वारा उनकी पूजा सम्पन्न की।
भाई बलराम की मृत्यु अर्थात परमधाम पधारने के पश्चात, दिव्यदर्शी भगवान श्रीकृष्ण कुछ सोचते-विचारते हुए उस सूने वन में विचरने लगे। फिर वे श्रेष्ठ तेज वाले भगवान पृथ्वी पर बैठ गए।
बलराम की मृत्यु पर श्री कृष्ण उदास हो गए थे, भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण अर्थों के तत्त्ववेत्ता और अविनाशी देवता हैं। तो भी उस समय उन्होंने देहमोक्ष या ऐहलौकिक लीला का संवरण करने के लिए किसी निमित्त के प्राप्त होने की इच्छा की। फिर वे मन, वाणी और इन्द्रियों का निरोध करके महायोग (समाधि) का आश्रय लेकर पृथ्वी पर लेट गए। उसी समय जरा नामक एक भयंकर व्याध मृगों को मार ले जाने की इच्छा से उस स्थान पर आया। उस समय श्रीकृष्ण योगयुक्त होकर सो रहे थे।
मृगों में आसक्त हुए उस व्याध ने श्रीकृष्ण को भी मृग ही समझा और बड़ी उतावली के साथ बाण मारकर उनके पैर के तलवे में घाव कर दिया। फिर उस मृग को पकड़ने के लिए जब वह निकट आया, तब योग में स्थित, चार भुजा वाले, पीताम्बरधारी पुरुष भगवान श्रीकृष्ण पर उसकी दृष्टि पड़ी। अब तो जरा अपने को अपराधी मानकर मन-ही-मन बहुत डर गया। उसने भगवान श्रीकृष्ण के दोनों पैर पकड़ लिए। तब महात्मा श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया और अपनी कान्ति से पृथ्वी एवं आकाश को व्याप्त करते हुए वे ऊर्ध्वलोक में (अपने परमधाम को) चले गए।
अन्तरिक्ष में पहुँचने पर इन्द्र, अश्विनी कुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, विश्वेदेव, मुनि, सिद्ध, अप्सराओं सहित मुख्य-मुख्य गन्धर्वों ने आगे बढ़कर भगवान का स्वागत किया। और इस प्रकार बलराम की मृत्यु के पश्चात श्री कृष्ण भी परम धाम को पधारे, वास्तव में बलराम की मृत्यु नहीं बल्कि वे भी श्री कृष्ण की तरह ही परमधाम को पधारे थे जय श्री कृष्ण।