कालिया नाग से जुड़े अनसुने तथ्य | Kaliya Naag Story

कालिया नाग

आखिर कौन था कालिया नाग, कहाँ से आया था वे, कितना शक्तिशाली था वो, क्या वो शेषनाग और वासुकि के समान ही बलशाली था या उनसे भी बढ़कर था, कालिया नाग अपने पिछले जनम में कौन था, कालिया नाग से जुड़े एक एक रहस्य को आज हम इस लेख में जानेंगे

कालिया नाग की उत्पत्ति की कथा

गर्ग संहिता श्री वृन्दावन खंड अध्याय 14 के अनुसार, पूर्वकाल की बात है, स्वायम्भुव मन्वन्तर में वेदशिरा नामक मुनि, जिनकी उत्पत्ति भृगुवंश में हुई थी, विन्ध्य पर्वतपर तपस्या करते थे। उन्हीं के आश्रम पर तपस्या करने के लिये अश्वशिरा मुनि आये। उन्हें देखकर वेदशिरा मुनि के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे रोषपूर्वक बोले, ब्राह्मण ! मेरे आमश्रम में तुम तपस्या न करो; क्योंकि वह सुखद नहीं होगी।

तपोधन! क्‍या और कहीं तुम्हारे तप के योग्य भूमि नहीं है? वेदशिरा की यह बात सुनकर अश्वशिरा मुनि भी क्रोधित हो गए और वे बोले मुनिश्रेष्ठ।! यह भूमि तो महाविष्णु की है; न तुम्हारी है न मेरी। तुम
व्यर्थ ही सर्प की तरह फुफकारते हुए क्रोध प्रकट करते हो, इसीलिए तुम सदा के लिये सर्प हो जाओ और तुम्हें गरुड से भय प्राप्त हो॥

वेदशिरा बोले–दुर्मते! तुम्हारा भाव बड़ा ही दूषित है। तुम छोटे-से अपराध पर भी महान्‌ दण्ड देने के लिये उद्यत रहते हो और अपना काम बनाने के लिये कौए की तरह इस पृथ्वी पर डोलते- फिरते हो; अत: तुम भी कौआ हो जाओ॥

इसी समय भगवान्‌ विष्णु दोनों ऋषियों के बीच प्रकट हो गये। श्रीभगवान्‌ बोले -मुनियो! तुम दोनों समान रूप से मेरे भक्त हो। वेदशिरा! सर्पकी अवस्था में तुम्हारे मस्तक पर मेरे दोनों चरण अंकित होंगे। उस समय से तुम्हें गरुड से कदापि भय नहीं होगा। और अश्वशिरा! तुम काक रूप में रहने पर भी तुम्हें निश्चय ही उत्तम त्रिकालदर्शी ज्ञान प्राप्त होगा।
यों कहकर भगवान्‌ विष्णु जब चले गये, तब अश्वशिरा मुनि साक्षात्‌ योगीन्द्र काकभुशुण्ड हो गये और नीलपर्वत पर रहने लगे।

चाक्षुष मन्वन्तर के प्रारम्भ में प्रजापति दक्ष ने महर्षि कश्यप को अपनी परम मनोहर ग्यारह कन्याएँ पत्नी रूप में प्रदान कीं। उन कन्याओं में जो श्रेष्ठ कद्र्‌ थी, उसने करोड़ों महा सपोँ को जन्म दिया। वे सभी सर्प विषरूपी बलसे सम्पन्न, तथा उग्र थे। उनमें से कोई-कोई सौ मुखों वाले एवं दुस्सह विषधर थे। उन्हीं में वेदशिरा ‘कालिय” नामसे प्रसिद्ध महानाग हुए। उन सबमें प्रथम राजा फणिराज शेष हुए, जो अनंत अवाम परात्पर परमेश्वर हैं

कालिया नाग और गरुड़ में दुश्मनी कैसे हुई

पूर्वकाल में रमणक द्वीप में नागों का विनाश करने वाले गरुड प्रतिदिन जाकर बहुत- से नागोंका संहार करते थे। तब गरुड़ जी को उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले सर्पों ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास में निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुड़ को एक सर्प की भेंट दी जाय।

इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सारे सर्प अपनी रक्षा के लिये महात्मा गरुड़ जी को अपना-अपना भाग देते रहते थे। सर्पों का ऐसा करने के पीछे भी एक कारण था, गरुड़ जी की माता विनता और सर्पों की माता कद्रू में परस्पर वैर था। माता का वैर स्मरण कर गरुड़ जी जो सर्प मिलता उसी को खा जाते। इससे व्याकुल होकर सब सर्प ब्रह्मा जी शरण में गये। तब ब्रह्मा जी ने यह नियम बना दिया कि प्रत्येक अमावस्या को प्रत्येक सर्प परिवार बारी-बारी से गरुड़ जी को एक सर्प की बलि दिया करे

उनके यों कहने पर सब सर्पो ने आत्मरक्षा के लिये एक-एक करके उन महात्मा गरुड़के लिये नित्य दिव्य बलि देना आरम्भ किया उन सर्पों में कद्रू का पुत्र कालिया नाग अपने विष और बल के घमण्ड से मतवाला हो रहा था। जब कालिय के घरसे बलि मिलने का अवसर आया, तब उसने गरुड को दी जाने वाली बलि की सारी वस्तुएँ बलपूर्वक स्वयं ही भक्षण कर लीं।


यह सुनकर गरुड़ को बड़ा क्रोध आया। इसलिये उन्होंने कालिया नाग को मार डालने के विचार से बड़े वेग से उस पर आक्रमण किया। विषधर कालिय नाग ने जब देखा कि गरुड़ बड़े वेग से मुझ पर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसने के लिए उनपर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये अपने दाँतों से गरुड़ को डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं।

गरुड़ जी विष्णु भगवान के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नाग की यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने अपने शरीर से झटककर फ़ेंक दिया एवं अपने बायें पंख से कालिय नाग पर बड़े जोर से प्रहार किया। उनके पंख की चोट से कालिय नाग घायल हो गया, तब भय से विह्ल हुआ कालिय गरुड से छूटकर भागा। गरुड भी सहसा उसका पीछा करने लगे।

सात द्वीपों, सात खण्डों और सात समुद्रों तक वह जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ उसने गरुड को पीछा करते देखा। वह नाग भूलोंक, भुवर्लोक, तथा स्वर्गलोक हर जगह पहुंचा पर किसी ने उसकी सहायता नहीं की, तब भय से व्याकुल कालिया नाग देवाधिदेव शेष के चरणों के निकट गया और कम्पित होकर शेष जी से सहायता मांगी

शेषनाग ने कालिया नाग को बताया रक्षा का उपाय

शेषनाग जी कालिया नाग से बोले- महामते कालिय! मेरी उत्तम बात सुनो। इसमें संदेह नहीं कि संसार में कहीं भी तुम्हारी रक्षा नहीं होगी। रक्षा का एक ही उपाय है; उसे बताता हूँ, सुनो–) पूर्वकाल में सौभरि नाम से प्रसिद्ध एक सिद्ध मुनि थे। उन्होंने वृन्दावन में यमुना के जलमें रहकर दस हजार वर्षो तक तपस्या की।

इसी स्थान पर एक दिन गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा लिया। अपने मुखिया मत्स्यराज के मारे जाने के कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरि को बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्ड में रहने-वाले सब जीवों की भलाई के लिये गरुड़ को यह शाप दे दिया। ‘यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे।

शेष जी कहते हैं- उस दिन से मुनि के शापसे भयभीत हुए गरुड वहाँ कभी नहीं आते। इसलिये कालिय! तुम मेरे कहने से शीघ्र ही वृन्दावन में चले जाओ। वहाँ यमुना में निर्भय होकर अपना निवास नियत कर लो। वहाँ कभी तुम्हें गरुडसे भय नहीं होगा, तभी से कालिया नाग वहीं रहने लगा

श्री कृष्ण द्वारा कालिया नाग का उद्धार

भागवत पुराण दशम स्कन्द अध्याय 16 के अनुसार, यमुना जी में कालिया नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूँदे लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे।

एक दिन उस विषैले जल के पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुना जी के तट पर गिर पड़े। उन्हें ऐसी अवस्था में देखकरर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अमृत बरसाने वाली दृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया, तदन्तर भगवान श्रीकृष्ण एक बहुत ऊँचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से ताल ठोककर उस विषैले जल में कूद पड़े।

कालिया नाग ने वहाँ श्रीकृष्ण के मर्मस्थानों में डसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया। श्रीकृष्ण नागपाश में बँधकर निश्चेष्ट हो गये। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल और गोपियाँ बहुत ही पीड़ित हुए और उसी समय दुःख, पश्चाताप और भय से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े


माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियदह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु कुछ गाँव वालों ने उन्हें पकड़ लिया
यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि ब्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये।

घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं और मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये। कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं।


कालिया नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिर को नहीं झुकता था, उसी को भगवान अपने पैरों कि चोट से कुचल डालते। उससे कालिय नाग की जीवन शक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया

अपने पति को इस प्रकार निर्बल होते देख नाग-पत्नियाँ तुरंत समझ गईं कि उनके पति पर विजय पाने वाला यह बालक कोई सामान्य बालक नहीं, बल्कि साक्षात परमेश्वर ही हैं। नाग-पत्नियाँ तुरंत अपनी सभी संतानों को लेकर प्रभु श्रीकृष्ण की शरण में आ गईं और नतमस्तक होकर उनकी स्तुति करने लगीं। नाग-पत्नियों द्वारा इस विनती से श्रीकृष्ण दयार्द्र हो उठे और उन्होंने कालिय नाग को अपने पाश से मुक्त कर दिया। तब वह भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख अपने समस्त फन झुकाकर विनीत स्वर में बोला- “हे स्वामी! आपको पहचानने में मुझसे भूल हो गई।”

कालिया नाग की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा- “सर्प! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र में चला जा। मैं जानता हूँ कि तू गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस दह में आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नों से अंकित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड़ तुझे खायेंगे नहीं और न ही कोई शत्रुता रखेंगे ।

उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिया नाग और उसकी पत्नियों ने आनन्द से भरकर बड़े आदर से उनकी पूजा की। और आनन्द से उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली। तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के साथ रमणक द्वीप की, जो समुद्र में सर्पों के रहने का एक स्थान है, यात्रा की। भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से यमुना का जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृत के समान मधुर हो गया। जय श्री कृष्ण