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कुंभकर्ण की कहानी | किसका अवतार था कुंभकर्ण | How powerful was Kumbhkarna ?
कुंभकर्ण ऋषि विश्रवा और कैकसी के पुत्र तथा रावण का छोट्टा भाई था , वह उस समय का सबसे विशालकाय राक्षस था, उसको युद्ध में पराजित करना लगभग असंभव था, कुंभकर्ण बिना किसी वरदान के प्रकृतिक रूप से ही शक्तिशाली था, देवासुर संग्राम में उसने आदित्यों एवं रुदरों को परास्त किया था, इनके साथ साथ उसने यम को भी एक भीषण युद्ध में पराजित किया था, कुंभकर्ण ने अपने भाई की इन्द्र पर विजय पाने में सहायता की थी, आइये विस्तार से जानते हैं इस अत्यंत शक्तिशाली राक्षस के बारे में जिसके प्राकरम को सुन आप भी हैरान हो जाएंगे
कुंभकर्ण रावण और विभीषण की तपस्या और वरदान प्राप्ति
एक समय कुबेर जी को अपने तेज से प्रकाशित देख कैकसी ने अपने पुत्र रावण से कहा, “हे पुत्र, अपने भाई कुबेर को देखो, वह तेज से कैसा प्रज्वलित है। तुम भी उसके भाई ही हो, किन्तु देखो तुममें और उसमें कितना अंतर है। अतः, हे दशग्रीव, तुम ऐसा यत्न करो जिससे तुम भी कुबेर के समान हो जाओ।”
माता के यह वचन सुनकर रावण को अपने भाई के ऐश्वर्य से बड़ा डाह हुआ और उसने माता के समक्ष यह प्रतिज्ञा की कि वह अपने प्राक्रम से कुबेर से भी अधिक हो जाएगा। उस समय रावण अपने छोटे भाइयों को साथ लेकर कठिन तप करने के लिए उद्यत हुआ और सिद्धि प्राप्ति के लिए गोकर्ण नामक शुभ आश्रम में आया। वहाँ तीनों भाइयों ने तप आरंभ किया।
वह राक्षस तप धर्म के नियमानुसार अपने चारों और आग जला कर, पंचाग्नि तापता था , इस प्रकार तप करते हुए उसने दस हज़ार वर्ष बिता डाले, ब्रह्मा जी जब कुंभकर्ण को वरदान देने के लिए उपस्थित हुए तो उनके साथ हुए देवता, ब्रह्मा जी से बोले, हे ब्राह्मण, आप इस कुंभकर्ण को वरदान न दें, क्योंकि आप जानते ही हैं के वर पाये बिना ही यह दुष्ट तीनों लोकों को सताया करता है, नंदनवन में इसने सात अप्सराओं तथा इन्द्र के सात टहलुओं को इसने खा डाला, इसके खाये हुए ऋषियों और मनुष्यों की तो गिनती ही नहीं, वर पाने तो यह तीनों भुवनों को खा डालेगा,
तब सोच विचारकर उन्होने सरस्वती का आह्वान किया, और उन्हे निर्देश दिया की तुम इसकी जिह्वा पर बैठकर इससे कहलाओ, तब देवी सरस्वती कुंभकर्ण के मुख पर बैठ गयी,
उस समय ब्रह्मा जी ने उस राक्षस से कहा के तुम जो वर मांगना चाहते हो मांग लो, वो बोला मुझे ऐसा वर दो के मैं अनेक वर्षों तक सोया करूँ, तब तथास्तु कहकर वे देवताओं को साथ लेकर वहाँ से चल दिये, सरस्वती देवी भी उसके मुख से चले आयीं
जब सरस्वती उसके मुख से निकाल गयी, तो उस समय कुंभकर्ण को यह चेत हुआ के हाए मेरे मुख से यह कैसा वचन निकाल गया, निश्चित ही उस समय देवताओं ने मुझे मोह में डाल दिया था, यह कैसे गलती मुझसे हो गयी, बाकी दोनों भाइयों के बजाए कुंभकर्ण ने अपने को ठगा सा समझा, क्योंकि उन दोनों को बहुत शक्तिशाली वरदान प्राप्त हुए थे
विभीषण ने श्री राम को बताया कुंभकर्ण का बल
वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड सर्ग 61 के अनुसार, जब सर्वप्रथम कुंभकर्ण युद्ध भूमि में आया था, तो श्री राम वहाँ विभीषण से बोले यह विशाल शरीरधारी कोई राक्षस है अथवा असुर, मैंने तो इस प्रकार का जीव इसके पूर्व कभी देखा ही नहीं, तो इसके उत्तर में विभीषण ने प्रभु राम को कुंभकर्ण के बारे में बताना आरंभ किया
वह बोले, जिसने युद्ध में यमराज और इन्द्र को भी परास्त कर दिया, वही विश्रवा मुनि का पुत्र यह प्रतापी कुंभकर्ण है | इसके बराबर लंबा और मोटा दूसरा कोई राक्षस नहीं है , इसने युद्ध में कितनी ही बार हजारों देवताओं, गन्धर्वों, मांसभक्षी दानवों, यक्षों, विद्याधरों और किन्नरों परास्त किया था, दूसरे राक्षसों को तो वरदान का बल है, किन्तु यह महाबली कुंभकर्ण तो स्वभाव ही से तेजस्वी है
6 महीने के लिए क्यों सो जाते थे कुंभकर्ण ? ब्रह्मा जी वरदान था या श्राप
कुंभकर्ण ने जन्म लेते ही भूख से विकल हो, बहुत से हजारों जीवों को खा लिया था। उसके इस कृत्य से प्रजा बहुत डरी और विकल हुई। फिर वह इन्द्र के पास गई और सारा वृतांत उनसे कहा। तब वज्रधारी इन्द्र ने कुपित होकर अपना वज्र उस भीमकाय राक्षस पर चलाया। यह बलवान वज्र लगने पर कुछ विचलित तो हुआ किन्तु क्रोध में भर बड़े ज़ोर से गर्जा। उसकी गर्जना सुन प्रजा और भी भयभीत हो गई।
उधर महाबली कुंभकर्ण ने इन्द्र के ऐरावत हाथी का दाँत उखाड़कर इन्द्र की छाती में मारा। कुंभकर्ण के प्रहार से पीड़ित होकर इन्द्र अत्यंत कुपित हुए। इन्द्र को घायल देख अन्य देवता, ब्रह्मर्षि और दानव सब बहुत दुखी हुए, और इन्द्र सहित समस्त प्रजा को साथ लेकर वे ब्रह्म लोक में गए और वहाँ जाकर कुंभकर्ण की सारी दुष्टता ब्रह्मा जी को सुनाई।
वे बोले, “यदि वह इसी तरह नित्य प्रजाओं का भक्षण करता रहा तो थोड़े ही दिनों में संसार सूना हो जाएगा।” उस भयंकर राक्षस को देख ब्रह्मा भी डर गए। फिर कुंभकर्ण को देखकर और लुभाकर ब्रह्मा जी ने उससे कहा, “हे राक्षस, निश्चय ही संसार का नाश करने के लिए ही विश्रवा मुनि ने तुझे उत्पन्न किया है। अतः आज से तू मुर्दे की तरह पड़ा सोया करेगा।”
इस प्रकार ब्रह्मा का श्राप होते ही वह उनके सामने गिर पड़ा। यह देख रावण ने घबरा कर कहा, “हे प्रजापते, यह वृक्ष जब फूलने योग्य हुआ तब आपने इसे काट डाला। महाराज, यह तो आपका ही पौत्र है, इसे इस प्रकार शाप देना उचित नहीं। आपका वचन तो कभी मिथ्या हो ही नहीं सकता और निःसंदेह यह उसी प्रकार सोवेगा भी। किन्तु आप इसके सोने और जागने का समय नियत कर दें।”
रावण के इन वचनों को सुन ब्रह्मा जी बोले, “यह 6 मास सोवेगा और एक दिन जागेगा। उसी एक दिन में यह वीर भूख के मारे विकल हो, पृथ्वी पर घूमेगा और प्रदीप्त अग्नि की तरह मुख फैला कर अनेक लोगों को खाएगा।” कुंभकर्ण के सोने को लेकर कई प्रकार की कीवदंतियाँ फैली हुई हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार कुंभकर्ण के सोने की वजह यही है।
कुंभकर्ण और श्री राम का युद्ध
लंका युद्ध के दूसरे दिन, श्री राम और रावण के बीच हुए युद्ध में, रावण को श्री राम ने परास्त कर उसे जीवन दान दे दिया था। इस बात से क्रोधित होकर रावण ने अपने मंत्रियों से बलशाली कुंभकर्ण को जगाने का आदेश दिया। रावण और अन्य राक्षसों के प्रयास से जब वह अति विशाल कुंभकर्ण जागा, तो वह प्रभु राम और समस्त वानर सेना के सामने आया। वहाँ कुंभकर्ण के एक प्रहार से ही हजारों वानर धराशायी होने लगे और वह एक ही बार में हजारों वानरों को पकड़कर खाने लगा। हनुमान जी भी वहाँ आ गए और कुंभकर्ण पर वृक्ष एवं पर्वत शिखर बरसाने लगे, परंतु कुंभकर्ण ने उन सबको अपने शूल से चूर-चूर कर डाला।
इसके उपरांत, जैसे ही कुंभकर्ण अपना शूल उठाकर वानर सेना पर झपटा, हनुमान जी ने एक भारी पर्वत खींचकर उस राक्षस पर मारा, जिससे वह घायल हो गया और खून और चर्बी से नहा उठा। इससे क्रोधित कुंभकर्ण ने अपने शूल से हनुमान जी की छाती पर जोरदार प्रहार किया, जिससे हनुमान जी विकल हो गए और उनके मुख से लहू निकल आया। परंतु इस पर भी उस महासमर में हनुमान जी भयंकर गर्जना करने लगे। यह वृतांत दर्शाता है कि सर्वशक्तिशाली हनुमान जी को भी कुंभकर्ण ने घायल कर दिया था।
उसी युद्ध में कुंभकर्ण ने अकेले ही वानर सेना के कई प्रमुख सेनापति जैसे ऋषभ, नील, गवाक्ष आदि को बड़ी आसानी से पराजित कर दिया था। अंगद को भी अपने मुष्टिका के प्रहार से मूर्छित कर दिया था, हालांकि अंगद के प्रहार से वह भी कुछ समय के लिए अचेत हो गया था।
सुग्रीव पर अपनी शक्तिशाली शूल चलायी थी, परंतु इससे पहले कि वह सुग्रीव तक पहुँचती, उसे बीच में ही हनुमान जी ने पकड़कर तोड़ दिया था। इससे क्रोधित कुंभकर्ण ने एक विशाल पर्वत उठाकर सुग्रीव पर चला दिया, जिससे सुग्रीव भी मूर्छित हो वहीं गिर पड़े।
श्री राम के साथ हुए अंतिम युद्ध में कुंभकर्ण ने प्रभु राम को भी अपने बल एवं पराक्रम से अचंभित कर दिया था। जिन बाणों के प्रहार से उन्होंने साल वृक्षों को भेद दिया था और बाली जैसे शक्तिशाली वानर को मार गिराया था, वे बाण भी कुंभकर्ण पर विफल हो गए, जिसे देख श्री राम भी हैरान हो गए थे।
सर्वप्रथम श्री राम ने वायव्य अस्त्र से उसकी एक भुजा को काट दिया। इस पर भी कुंभकर्ण रुके नहीं और दूसरे हाथ से एक वृक्ष उखाड़कर श्री राम की ओर झपटे। श्री राम ने ऐंद्रास्त्र चलाकर उसकी दूसरी भुजा भी काट डाली। श्री रामचंद्र जी ने देखा कि दोनों भुजाओं के कट जाने पर भी वह राक्षस गरजता हुआ चला ही आ रहा है,
तब उन्होंने अर्धचंद्राकार पाइन बाणों को निकालकर उसके दोनों पैर काट डाले। दोनों पैर और भुजाएँ कट जाने के बाद भी वह अपना मुख खोलकर श्री राम की ओर झपटा। श्री राम ने उसके मुख को बाणों से भर दिया जिसके कारण वह कुछ बोल भी न सका, और अंत में एक और ऐंद्रास्त्र चलाकर उसका मस्तक काट डाला।
जिसके वध के लिए विष्णु अवतार को इतना बल झोंकना पड़ा और चार दिव्यास्त्र चलाने पड़े, वह निश्चित ही कोई आम राक्षस न था।