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मांधाता की कहानी | कितने शक्तिशाली थे मान्धाता | Was Mandhata the most powerful Ikshwaku King ?
मांधाता एक ऐसे अनुपम पराक्रमी योद्धा थे जिनके बारे में कम ही लोगों को जानकारी है। प्रभु श्रीराम के पूर्वज और इक्ष्वाकु वंश के इस महान योद्धा ने अपने पराक्रम से तीनों लोकों को एक ही दिन में जीत लिया था। इन्द्र को पराजित कर उन्हें जीवन दान दिया था, यहाँ तक कि रावण जैसे राक्षस भी उनसे भयभीत रहते थे। उनके जन्म को लेकर भी एक बड़ी रोचक कहानी है। आइए विस्तार से जानते हैं इस असीम पराक्रमी योद्धा के बारे में।
मांधाता का जन्म
महाभारत के वन पर्व अध्याय 126 में एक स्थान पर , युधिष्ठिर ने लोमश जी से पूछा- ब्राह्मण श्रेष्ट ! युवानाश्व के पुत्र मान्धाता तीनों लोकों मे विख्यात थे । उनकी उत्पति किस प्रकार हुई थी । अमित तेजस्वी मान्धाता ने यह सर्वोच्च स्थिति कैसे प्राप्त कर ली थी सुना है, पमात्मा विष्णु के समान महाराज मान्धाता के वश में तीनों लोक थे । मह्षें ! मैं आपके मुख से उन सत्य र्कीति एवं बुद्धिमान राजा मान्धाता का वह सब चरित्र सुनना चाहता हूं । इन्द्र के समान पराक्रमी उन नरेश का ‘मांधाता’ नाम कैसे हुआ । और उनके जन्म का वृत्तान्त क्या हैं बताइये; ।
लोमशजी ने कहा- राजन ! इक्ष्वाकुवंश में युवनाश्व नाम से प्रसिद्ध एक राजा हुए । भूपाल युवनाश्व ने प्रचुर दक्षिणा वाले बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान किया । वे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ थे । उन्होंने एक सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ पूर्ण करकें दक्षिणा के साथ दूसरे दूसरे श्रेष्ट यज्ञों द्वारा भगवान की अराधना की ।
वे महामना राजर्षि महान व्रत का पालन करने वाले थे तो भी उनके कोई संतान नहीं हुई । तब वे मनस्वी नरेश राज्य का भार मन्त्रियों पर रखकार शास्त्रीय विधि के अनुसार अपने आपको परमात्म् चिन्तन में लगाकर सदा वन में ही रहने लगे ।
एक दिन की बात है, राजा युवनारश्व अपवास के कारण दु:खित हो गये । प्यास से उनका हृदय सूखने लगा । उन्होंने जल पीने की इच्छा से रात के समय महर्षि भृगु के आश्रम में प्रवेश किया । राजेन्द्र उसी रात में महात्मा भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ने सुद्युधुम्न्रकुमार युवनाश्व को पुत्र की पाप्ति कराने के लिये एक इष्टि की थी । उस इष्टि के समय महर्षि मन्त्रपूत जल से एक बहुत बड़े कलश को भरकर रख दिया था ।
महाराज वह कलश का जल पहलें से ही आश्रम के भीतर इस उद्देश्य से रखा गया था कि उसे पीकर राजा युवनाश्व की रानी इन्द्र के समान शक्तिशाली पुत्र को जन्म दे सकें । उस कलश को वेदी पर रखकर सभी महर्षि सो गये थे । राज में देर तक जागने के कारण वे सब के सब थके हुए थे । युवनाश्व उन्हें लांघकर आगे बढ़ गये । वे प्यास से पीड़ित थे । उनका कण्ठ सूख गया था । पानी पीने की अत्यन्त अभिलाषा से वे उस आश्रम के भीतर गये और शान्तभाव से जल के लिये याचना करने लगे ।
राजा थककर सूखे कण्ठ से पानी के लिये चिल्ला रहे थे, परंतु उस समय उनकी चीख पुकार कोई भी न सुन सका । तदनन्तर जल से भरे हुए पर्वोक्त कलश पर उनकी दृष्टि पड़ी ।
देखते ही वे बड़े वेग से उसकी ओर दौड़े और (इच्छानुसार पीकर उन्होंने बचे हुए जल को वहीं गिरा दिया) । राजा युवनाश्व प्यास से बड़ा कष्ट पा रहे थे । वह शीतल जल पीकर उन्हें बड़ी शान्ति मिली । वे बुद्धिमान नरेश उस समय जल पीने से बहुत सुखी हुए । तत्पश्चात तपोधन च्यवन मुनि के सहित सब मुनि जाग उठे। उन सबने उस कलश को जल से शून्य देखा ।
फिर तो वे सब एकत्र हो गये और एक दूसरे से पूछने लगे- ‘यह किसका काम है’ युवनाश्व ने सामने आकर कहा- ‘यह मेरा कर्म है’ इस प्रकार उन्होंने सत्य को स्वीकार कर लिया । तब भगवान च्यवन ने कहा- ‘महान बल और पराक्रम से सम्पन्न राजर्षि युवनाश्व यह तुमने ठीक नहीं किया, इस कलश में मैने तुम्हें ही पुत्र प्रदान करने के लिये तपस्या से संस्कारयुक्त किया हुआ जल रखा था और कठोर तपस्या करके ब्रह्म तेज की स्थापना की थी ।
‘राजन उक्त विधि से इस जल को मैने शक्ति सम्पन्न कर दिया था कि इस को पीने से एक महाबली, महा पराक्रमी ओर तपोबल सम्पन्न् पुत्र उत्पन्न हो, जो अपने बल पराक्रम से देवराज इन्द्र को भी यमलोक पहूंचा सके; उसी जल को तुमने आज पी लिया, यह अच्छा नहीं किया । ‘अब हमलोग इसके प्रभाव को टालने या बदलने में असमर्थ हैं । तुमने जो ऐसा कार्य कर डाला हैं, इसमें निश्चय ही देव की प्रेरणा है ।
‘महाराज तुमने प्यास से व्याकूल होकर जो मेरे तपोबल से संचित तथा विधिपूर्वक मन्त्र से अभिमन्त्रित जल को पी लिया है, उसके कारण तुम अपने ही पेट से तथाकथित इन्द्र विजयी पुत्र को जन्म दोगे । इस उद्देश्य की सिद्धि के लिये हम तुम्हारी इच्छा के अनुयप अत्यन्त अदभुद यज्ञ करायेंगे, जिससे तुम स्वयं भी शक्तिशाली रहकर इन्द्र के समान पराक्रमी पुत्र को उत्पन्न् कर सकोगे और गर्भधारण जनित कष्ट का भी तुम्हें अनुभव होगा’ ।
उनका नाम मांधाता कैसे पड़ा
तदनन्तर पूरे सौ वर्ष बीतने पर उन महात्मा राजा युवनाश्व की बायीं कोख फाड़कर एक सूर्य के समान महातेजस्वी बालक बाहर निकला तथा राजा की मृत्यु नहीं हुई। तत्पश्चात महातेजस्वी इन्द्र उस बालक को देखने के लिये वहाँ आये। उस समय देवताओं ने महेन्द्र से पूछा- ‘यह बालक क्या पीयेगा।’ तब उन्होंने अपनी अगुंली बालक के मुँह में डाल दी ओर कहा- ‘माम् अयं धाता‘ अर्थात ‘यह मुझे ही पीयेगा।’ वज्रधारी इन्द्र के ऐसा कहने पर इन्द्र आदि सब देवताओं ने मिलकर उस बालक का नाम ‘मांधाता’ रख दिया।
मांधाता के अस्त्र शस्त्र तथा उनकी शक्तियाँ
इन्द्र की दी हुई तर्जनी अंगुली का रसास्वादन) करके वह महातेजस्वी शिशु तेरह बित्ता बढ़ गया। उस समय शक्तिशाली मांधाता के चिन्तन करने मात्र से ही धनुर्वेद सहित सम्पूर्ण वेद और दिव्य अस्त्र ( ईश्वर की कृपा से उपस्थित हो गये)। आजगव नामक धनुष, सींग के बने हुए बाण और अभेद्य कवच- सभी तत्काल उनकी सेवा में आ गये।
साक्षात देवराज इन्द्र ने मांधाता का राज्याभिषेक किया
मांधाता द्वारा लड़े गए युद्ध और उनका पराक्रम
भगवान विष्णु ने जैसे तीन पगों द्वारा त्रिलोकी को नाप लिया था, उसी प्रकार मान्धाता ने भी धर्म के द्वारा तीनों लोकों को जीत लिया। उन महात्मा नरेश का शासन चक्र सर्वत्र बेरोक-टोक चलने लगा। सारे रत्न राजर्षि मान्धाता के यहाँ स्वयं उपस्थित हो जाते थे। इस प्रकार उनके लिये वह सारी पृथ्वी धन-रत्नों से परिपूर्ण थी। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा वाले नाना प्रकार के बहुसंख्यक यज्ञों द्वारा भगवान की समाराधना की,और उसी के फल से स्वर्गलोक में इन्द्र का आधा सिंहासन प्राप्त कर लिया।
उन धर्मपरायण नरेश ने केवल शासन मात्र से एक ही दिन में समुद्र, खान और नगरों सहित सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर ली
उन महात्मा नरेश ने बारह वर्षों तक होने वाली अनावृष्टि के समय वज्रधारी इन्द्र के देखते-देखते खेती की उन्नति के लिये स्वयं पानी की वर्षा की थी। उन्होंने महामेघ के समान गर्जते हुए चन्द्रवंशी गान्धारराज को बाणों से घायल करके मार डाला था। वे अपने मन को वश में रखते थे। उन्होंने अपने तपोबल से देवता, मनुष्य, तिर्यक और स्थावर- चार प्रकार की प्रजा की रक्षा की थी; साथ ही अपने अत्यन्त तेज से सम्पूर्ण लोकों को संतप्त कर दिया था
मांधाता का विवाह तथा उनके पुत्र
भागवत पुराण के स्कन्द 9 अध्याय 6 के अनसार रावण तथा अन्य सभी लूटेरे भी मंधाता से भयभीत रहते थे , भगवान के तेज से तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीप वाली पृथ्वी का शासन किया। राजा मान्धाता की पत्नी का नाम बिन्दुमती था । जिनसे उनके तीन पुत्र हुए- पुरुकुत्स, अम्बरीष और योगी मुचुकुन्द
मांधाता और रावण का युद्ध
रामायण के उत्तर कांड के अनुसार एक समय जब मांधाता और रावण का युद्ध हुआ था तो मंधाता ने अकेले ही रावण सहित उसकी समस्त सेना को धूल चटा दी थी, जिससे क्रोधित होकर रावण ने मांधाता पर रौद्रास्त्र चला दिया था उसको मांधाता ने आग्नेयास्त्र से नष्ट कर दिया था, फिर रावण गंधर्व अस्त्र का उपयोग किया उसे भी मांधाता ने अपने ब्रह्मास्त्र से काट दिया था, जब रावण के सेना भयभीत होने लगी तो रावण ने पाशुपतास्त्र का आह्वान किया जिससे समस्त सृष्टि के प्राणी भयभीत हो गए, तब वहाँ पौलसत्य तथा गालव ऋषि आए जिनहोने उन दोनों से युद्ध रोक देने का निवेदन किया था
मांधाता और लवणासुर का युद्ध
वाल्मीकि रामायण के ही उत्तर कांड सर्ग 67 के अनुसार, जब मांधाता ने स्वर्ग जीतने तैयारियां की तब इंद्र सहित समस्त देवता घबरा गए, तब इन्द्र ने मांधाता से कहा क्या तुम सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य अपने अधीन किए बिना ही देवराज्य पर बैठोगे, इस पर मांधाता बोले हे इन्द्र बतलाओ पृथ्वी पर मेरी आज्ञा का पालन कहाँ नहीं होता,
इंद्र बोले मधु दैत्य का पुत्र लवनासूर तुम्हारी आज्ञा का पालन नहीं करता, इस प्रकार इन्द्र देव ने मानधाता को बड़ा उकसाया , यहाँ इन्द्र ने बड़ी चतुराई से काम लिया , सिर्फ उनको पता था के लवनासूर के पास भगवान शिव का अमोघ शूल है , मांधाता बिना कुछ सोचे ही क्रोधित होकर लवनासूर से युद्ध करने पहुँच गए, और चारों और से बाणों की वर्षा कर लवणासुर को पीड़ित कर दिया,
मांधाता की मृत्यु
जब उस असुर का और कोई बस न चला तो उसने अपनी निश्चित मृत्यु से बचने के लिए भगवान शिव का दिया हुआ शूल मांधाता पर छोड़ दिया, उस त्रिशूल का बल अमित था , उस त्रिशूल ने महाराज मंधाता को उनकी सेना सहित भस्म कर दिया था , और इस प्रकार मांधाता अचानक ही इन्द्र द्वारा धोखे से मरवा दिये गए , जय श्री राम