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नर नारायण की कहानी | Who were Nar Narayan ?
कौन थे नर नारायण, कितने शक्तिशाली थे वे दोनों, कैसे और क्यों हुई थी उनकी उत्पत्ति, क्या वह दोनों भगवान विष्णु की तरह ही बलशाली थे, कहाँ रहते हैं वे दोनों, नर नारायण के जीवन से संबन्धित सभी रहस्यों को जानने के लिए इस लेख के अंत तक बने रहें
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नर नारायण का जन्म कैसे हुआ
महाभारत के शांति पर्व अध्याय 334 और देवी भागवत के स्कन्द 4 के अनुसार के अनुसार, स्वायम्भुव मन्वन्तर केू सत्ययुग में स्वयम्भू भगवान् वासुदेव के चार अवतार हुए थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं- नर, नारायण, हरि ओर कृष्ण। इन महाकाव्यों के अनुसार ब्रह्मा जी के हृदय से एक पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम धर्म था, उन धर्म नामक महात्मा मुनि ने दक्ष प्रजापति की दस कन्याओं से विवाह किया था, उन धर्म ने उनही से हरी, कृष्ण नर और नारायण नामक पुत्र उत्पन्न किए थे, उनमें से अविनाशी नारायण और नर बदरिकाश्रम में जाकर एक सुवर्णमय रथ पर स्थित हो घोर तपस्या करने लगे।
इंद्र की ईर्षा और नर नारायण की तपस्या भंग करने का प्रयास
तपस्या से उनका तेज इतना बढ़ गया कि देवताओं को भी उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था, उनके तप से सम्पूर्ण संसार संतप्त हो गया, इससे इन्द्र के मन में नर नारायण के प्रति क्षोभ उत्पन्न हो गया, इन्द्र ने सोचा यह धर्म पुत्र नर नारायण पूर्ण रूप से सिद्ध होकर मेरा श्रेष्ठ आसान ग्रहण कर लेंगे, अतः मैं किस प्रकार इनकी तपस्या भंग करूँ, ये ही विचार करके इन्द्र ने नर नारायण की और देखकर कहा, आप लोगों का क्या कार्य है बताइये, मैं अभी श्रेष्ठ वर प्रदान करता हूँ, अदय हो तो भी मैं दूँगा
इन्द्र के बार बोलने पर भी वह दोनो ध्यानमग्न रहे, इन्द्र ने विभिन्न प्रकार की मायाएँ रच उन दोनों को भयभीत करने का प्रयास किया, परंतु उन दोनों पर कोई असर नहीं हुआ
जब इन्द्र के सारे प्रयास विफल हो गए तो उन्होने कामदेव और वसंत को बुलाया और उनसे कहा के तुम अभी बद्रिका आश्रम जाओ और उनपर अपने बाण चलाकर कामासक्त कर दो, तुम्हारी सहायता के लिए रंभा, तिलोतमा आदि अप्सराओं का समूह मैं वहाँ भेज दूंगा, जाओ मेरे इस कार्य को सम्पन्न करो, तब कामदेव ने वहाँ पहुँचकर उस आश्रम में अपनी माया फैला दी
मेणेका , रंभा , तिलोत्तमा , सुकेशी, मनोरमा तथा अन्य बहुतसी अप्सराएँ नर और नारायण को लुभाने का प्रयास करने लगीं , उन्हे सुनकर नारायण मुनि बोले तुम लोग बैठो मैं तुम्हारा आतिथ्य सत्कार करूंगा
उस समय मुनि नारायण अभिमान में आकार सोचने लगे की निश्चित रूप से इन्द्र ने हमारे तप में बाधा डालने की इच्छा से इन्हे यहाँ भेजा है, यह सब बेचारी क्या चीज़ हैं , मैं अभी अपना तपोबल दिखाता हूँ और इनसे भी अधिक दिव्य रूपवाली नवीन अप्सराएँ उत्पन्न करता हूँ , मनसे ऐसा विचार करके उन्होने हाथ से अपनी जंघा पर आघात कर तत्काल एक सुंदर स्त्री उत्पन्न कर दी , नारायण के उरुदेश अर्थात जंघा से उत्पन्न होने के कारण उसका नाम उर्वशी पड़ा ,
लोगों को मोह में डालने वाली वे अप्सराएँ भी उर्वशी को देख कर सुध बुध खो बैठीं , वे बोलीं ऐसा कौन है जो हम लोगों के रूप से दग्ध न हो , फिर आपके मन को थोड़ी भी व्यथा न हुई ?, हम लोगों को ज्ञात हो गया की आप लोग साक्षात विष्णु के अंश हैं , नर नारायण तब उन अप्सराओं और देवताओं से बोले अब आप लोग इन उर्वशी को लेकर स्वर्ग के लिए प्रस्थान करो और इसके बाद अब किसी की भी तपस्या में विघ्न उत्पन्न मत करना
भगवान शिव और नर नारायण का युद्ध
महाभारत के शांति पर्व अध्याय 342 के अनुसार, जिस समय नर नारायण ने धर्ममय रथ पर आरूढ़ हो गन्धमादन पर्वत पर अक्षय तप किया था, उसी समय प्रजापति दक्ष का यज्ञ आरम्भ हुआ। उस यज्ञ में दक्ष ने रुद्र के लिये भाग नहीं दिया था; इसीलिये रुद्रदेव ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर डाला। रुद्र ने क्रोध पूर्वक अपने प्रज्वलित त्रिशूल कर बारंबार प्रयोग किया। वह त्रिशूल दक्ष के विस्तृत यज्ञ को भस्म करके सहसा बदरिकाश्रम में (नर और नारायण) के निकट आ पहुँचा।
उस समय नारायण की छाती में वह त्रिशूल बड़े वेग से जा लगा। । तब महात्मा नारायण ने हुंकार ध्वनि के द्वारा उस त्रिशूल को पीछे हटा दिया। नारायण के हुकार से प्रतिहत होकर वह शंकरजी के हाथ में चला गया।।। यह देख रुद्र तपस्या में लगे हुए उन ऋषियों पर टूट पड़े। तब विश्वात्मा नारायण ने अपने हाथ से उन आक्रमणकारी रुद्रदेव का गला पकड़ लिया। इसी से उनका कण्ठ नीला हो जाने के कारण वे ‘नीलकण्ठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी समय रुद्र का विनाश करने के लिये नर ने सींक निकाली और उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके शीघ्र ही छोड़ दिया। वह सींक बहुत बड़े परशु के रूप में परिणत हो गयी।
नर का चलाया हुआ वे परशु सहसा रुद्र के द्वारा खण्डित कर दिया गया। परशु का खण्डन हो जाने से ही रुद्र ‘खण्डपरशु’ भी कहलाए । इसके उपरांत रुद्र और नारायण परस्पर युद्ध करने लगे , जिससे पृथ्वी काँपने लगी, आकाश विचलित हो गया, ऐसे अपशकुन प्रकट होने पर ब्रह्माजी देवताओं तथा महात्मा ऋषियों को साथ ले शीग्र उस स्थान पर आये, ब्रह्मा जी ने बारी बारी से रुद्र और नारायण दोनों को शांत और प्रसन्न किया और दोनों ने ही क्रोधाग्नि का त्याग किया और दोनों एक दूसरे के गले मिले ,
तदन्तर जगदीश्वर श्रीहरि ने रुद्रदेव से कहा आज से तुम्हारे शूल का यह चिह्न मेरे वक्ष-स्थल में ‘श्रीवत्स’ के नाम से प्रसिद्ध होगा और तुम्हारे कण्ठ में मेरे हाथ के चिह्न से अंकित होने के कारण तुम भी ‘श्रीकण्ठ’ कहलाओगे’
इस प्रकार नर – नारायण रुद्रदेव के साथ अनुपम मैत्री स्थापित कर देवताओं को विदा करने के पश्चात् शान्तचित्त हो पूर्ववत् तपस्या करने लगे।
नर नारायण का प्रहलाद से युद्ध
देवी भागवत के स्कन्द 4 अध्याय 9 के अनुसार एक समय हरिनयकश्यप पुत्र प्रह्लाद तीर्थ यात्रा पर था तो एक स्थान पर उसे एक विशाल वट वृक्ष दिखाई पड़ा, उसके नीचे उसने तप करते हुए नर नारायण मुनियों को देखा, उनके आगे आजगव तथा शारंग नामक दो धनुष तथा दो अक्षय तरकस रखे हुए थे, उन्हे ध्यानावस्थित देख प्रह्लाद क्रोधित होकर नर – नारायण से बोला , आप दोनों ने धर्म को नष्ट करने वाला यह कैसा पाखंड कर रखा है, इस प्रकार की घोर तपस्या तथा धनुष धारण करना , ऐसा तो इस संसार न कभी सुना गया न देखा ही गया है ,
कहाँ मस्तक पर जटा धारण करना और कहाँ यह तरकस रखना , यह दोनों बातें , आडंबरमात्र हैं, यह वचन सुन, नर – नारायण बोले , हेय दैत्य , हम दोनों की तपस्या के विषय में आप यह व्यर्थ चिंता क्यों कर रहे हैं, युद्ध तथा तपस्या हम इन दोनों में समर्थ हैं, आप अपने रास्ते चले जाइए यहाँ व्यर्थ की बातें क्यों कर रहे हैं
प्रह्लाद बोले – आप दोनों तपस्वी मंद बुद्धिवाले हैं और व्यर्थ ही अहंकार दिखा रहे हैं , मेरे रहते इस पवित्र तीर्थ इस प्रकार का अधर्म पूर्ण आचरण उचित नहीं, दिखाओ अपनी शक्ति मुझसे युद्ध कर के ,
तब प्रह्लाद का वचन सुनकर ऋषि नर ने उनसे कहा , यदि आपकी ऐसी ही धारणा है तो मेरे साथ इसी समय युद्ध कर लीजिये, , तब दैत्यराज प्रह्लाद और नर नारायण में भीषण युद्ध छिड़ गया , इन्द्र सहित सभी देवगन उस युद्ध को देखने आए , उस युद्ध को देख कर नारद मुनि ने कहा, ऐसा घोर संग्राम पहले नहीं हुआ था, तारकसूर युद्ध , वृतरासुर का युद्ध यहाँ तक की मधु – कैटभ का युद्ध भी वैसा नहीं हुआ था, इन वीरों के यह युद्ध अद्भुत है
इस प्रकार सबको विस्मित कर देने वाला वह युद्ध कई दिव्य वर्षों तक चलता रहा , तदन्तर भगवान विष्णु तुरंत उस आश्रम में आ गए , प्रह्लाद उनसे बोले , हे जगन्नाथ, मैं उन दोनों तपस्वियों को युद्ध में क्यों नहीं जीत सका? , मुझे यह महान आश्चर्य है , भगवान विष्णु बोले , हे आर्य , यह दोनों सिद्ध पुरुष हैं और मेरे अंश से ही अवतरित हुए हैं , इन्हे न जीत पाने में आश्चर्य कैसा | इन जीतात्मा तपस्वियों को तुम नहीं जीत सकते, अतः हे राजन तुम वितल लोक चले जाओ वहाँ मेरी अविचल भक्ति करो, तुम इन दोनों तपस्वियों से विरोध मत करो , तदन्तर प्रह्लाद के जाने पर नर नारायण पुनः तपस्या में स्लंगन हो गए
नर नारायण और दम्भोभ्दव का युद्ध
महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 96 में वर्णित एक वृतांत के अनुसार, पूर्वकाल की बात है, दम्भोभ्दव नाम से प्रसिद्ध एक सम्राट थे जो सम्पूर्ण अखंड भूमंडल का राज्य भोगते थे,
‘वे प्रतिदिन प्रात: काल उठकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों से पूछते थे के ‘क्या इस जगत में कोई ऐसा शस्त्रधारी है, जो युद्ध में मुझसे बढ़कर अथवा मेरे समान भी हो सके? वह बहुत अहंकारी हो गए थे , एक दिन जब पुनः उन्होने येही प्रश्न पूछा तो यह देख तपस्वी ब्राह्मण क्रोध से तमतमा उठे और उनसे बोले,
‘राजन! दो ऐसे पुरुष रत्न हैं, जिन्होंने युद्ध में अनेक योद्धाओं पर विजय पायी है। तुम उन्हीं दोनों के साथ युद्ध करो। सुना है, वे दोनों महात्मा नर और नारायन गंधमादन पर्वत पर ऐसी घोर तपस्या कर रहे हैं, जिसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता।
राजा को यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने रथ, हाथी, घोड़े, से युक्त विशाल सेना को लेकर नर नारायण के स्थान पर पहुँच गया, वहाँ नर और नारायण ने राजा का स्वागत-सत्कार किया और उनसे वहाँ आने का अभिप्राय पूछा
दम्भोभ्दव बोले, मैंने अपने बाहुबल से सारी पृथ्वी को जीत लिया है तथा सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार कर डाला है। अब आप दोनों से युद्ध करने की इच्छा लेकर इस पर्वत पर आया हूँ
नर नारायण बोले – हमारा यह आश्रम क्रोध और लोभ से रहित है और इस पृथ्वी पर बहुत-से क्षत्रिय हैं, अत: आप कहीं और जाकर युद्ध की अभिलाषा पूर्ण कीजिये, तथापि दम्भोभ्दव उन दोनों तापसों को ललकारते ही रहे।
तब महात्मा नर ने हाथ में एक मुट्ठी सींक लेकर कहा- ‘युद्ध चाहने वाले क्षत्रिय! आ, युद्ध कर। अपने सारे अस्त्र-शस्त्र ले ले। तू बड़े घमंड में आकर ब्राह्मण आदि सभी वर्ण के लोगों को ललकारता फिरता है; इसलिए मैं आज से तेरे युद्ध विषयक निश्चय को दूर किए देता हूँ।
दम्भोभ्दव ने तपस्वी नर को मार डालने की इच्छा से सब ओर से उन पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। परंतु मुनि ने उन बाणों का प्रहार करने वाले दम्भोभ्दव की कोई परवा न करके सींकों से ही उनको बींध डाला।
तब महर्षि नर ने उनके ऊपर भयंकर ऐषीकास्त्र का प्रयोग किया, जिसका निवारण करना असंभव था। और माया द्वारा सींक के बाणों से ही दम्भोभ्दव के सैनिकों को बींध डाला।
राजा दम्भोभ्दव उसी समय मुनि के चरणों में गिर पड़े और बोले- ‘भगवन! मेरा कल्याण हो मुझे क्षमा करें ।’ मुनि नर ने उससे कहा- ‘आज से तुम धर्मात्मा बनो। फिर कभी ऐसा साहस न करना।