नारद मुनि का अनसुना सच – Who is Narad Muni ? What are his powers ? Is narad Bad or Good ?

आखिर कौन हैं नारद मुनि? किस कार्य के लिए उनकी उत्पत्ति हुई? कितने शक्तिशाली हैं वे? जैसा कि प्रायः दिखाया जाता है कि नारद मुनि केवल झगड़े करवाने और उकसाने का कार्य ही करते थे, क्या सच में ऐसे ही थे वे? उनके बारे में एक-एक तथ्य जानने के लिए इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

नारद मुनि

भारतीय पौराणिक कथाओं में देवर्षि नारद एक अत्यंत अनूठा और प्रभावशाली चरित्र हैं। उन्हें त्रिभुवन (तीनों लोकों) का भ्रमण करने वाला, भगवान श्री हरि का परम भक्त, महान ज्ञानी, संगीतज्ञ और संदेशवाहक माना जाता है। उनकी उपस्थिति हर महत्वपूर्ण घटना में देखी जा सकती है – चाहे वह देवताओं और असुरों का युद्ध हो, राजाओं का मार्गदर्शन हो, या ऋषियों को ज्ञान देना हो।

हालांकि, लोकप्रिय धारणाओं में उन्हें अक्सर ‘कलहप्रिय’ (झगड़ा लगाने वाला) के रूप में चित्रित किया जाता है, लेकिन उनका वास्तविक उद्देश्य हमेशा लोक-कल्याण और धर्म की स्थापना रहा है। इस विस्तृत ब्लॉग पोस्ट में, हम नारद मुनि के विभिन्न जन्मों, उनकी उत्पत्ति, उनके शापों, असाधारण शक्तियों, उनके प्रमुख कार्यों और उनके चरित्र से जुड़े सभी रहस्यों को उजागर करेंगे।


नारद मुनि : बहुआयामी जन्म और स्वरूप

विभिन्न पुराणों में देवर्षि नारद के 7 से अधिक प्रमुख जन्मों का वर्णन है, और उनके ये सभी जन्म एक ही मन्वंतर में नहीं हुए हैं। पौराणिक कथाओं में जो स्थान नारद जी का है, उतना लोकप्रिय शायद ही कोई अन्य चरित्र हो।

  • गर्ग संहिता के मथुरा खंड अध्याय इक्कीस के अनुसार, पूर्व काल में प्रजापति ब्रह्मा जी, श्री हरि के नाभि-कमल से प्रकट होकर प्राकृत जगत की सृष्टि करने लगे। वे अपनी तपस्या और श्री हरि के वरदान से शक्तिशाली रहे।
  • एक समय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी की गोद से सुंदर पुत्र नारद जी का जन्म हुआ। वह श्री हरि की भक्ति में उन्मत्त होकर भूमंडल पर भ्रमण करते हुए उनके नाम-पदों का कीर्तन करने लगे।

ब्रह्मा जी के शाप और नारद मुनि का रूपांतरण

नारद जी की उत्पत्ति के तुरंत बाद, उन्हें कुछ शापों का सामना करना पड़ा जिन्होंने उनके जीवन और भूमिका को आकार दिया:

  1. प्रथम शाप (गंधर्व जन्म):
    • एक दिन ब्रह्मा जी ने नारद से कहा, “महामते! यह व्यर्थ घूमना छोड़ो और प्रजा की सृष्टि करो।”
    • उनकी यह बात सुन नारद जी ने कहा, “पिताजी, मैं सृष्टि नहीं करूंगा, क्योंकि वह शोक-मोह पैदा करने वाली है। मैं तो श्री हरि के नामों का कीर्तन और उनकी भक्ति करूंगा। आप भी इस सृष्टि व्यापार में लगकर दुःख से अत्यंत आतुर रहते हैं, अतः आप भी सृष्टि रचना छोड़ दीजिए।”
    • यह सुनकर ब्रह्मा जी के होंठ क्रोध से फड़कने लगे। उन्होंने कुपित हो शाप देते हुए कहा – “दुर्मते, तुम एक कल्प तक सदा गाने-बजाने में ही लगे रहने वाले गंधर्व हो जाओ।”
    • इस प्रकार ब्रह्मा जी के शाप से नारद जी उपबर्हन नामक गंधर्व हो गए। वे एक कल्प तक देवलोक में गंधर्वराज के पद पर प्रतिष्ठित रहे।
नारद मुनि को ब्रह्मा जी का श्राप
  1. द्वितीय शाप (दासी पुत्र जन्म):
    • एक दिन स्त्रियों से घिरे हुए वे ब्रह्मा जी के लोक में गए। वहाँ स्त्रियों में मन लगाए रहने के कारण उन्होंने बेताला गीत गाया
    • तब ब्रह्मा जी ने पुनः क्रोधित होकर उन्हें दासी पुत्र हो जाने का शाप दिया।
    • फिर सत्संग के प्रभाव से नारद ब्रह्मा पुत्र हुए। तदन्तर पुनः भक्तिभाव से उन्मत्त हो भूतल पर विचरते हुए वे श्री हरि के पदों का गान एवं कीर्तन करने लगे। मुनीन्द्र नारद वैष्णवों में श्रेष्ठ, श्री हरि के प्रिय तथा ज्ञान के सूर्य हैं। वे परम भागवत हैं और सदा श्री हरि में ही मन लगाए रहते हैं।

संगीत का ज्ञान और नारद मुनि की वीणा का रहस्य

नारद जी का संगीत ज्ञान उन्हें एक अद्वितीय स्थान दिलाता है, जो एक शाप के कारण शुरू हुआ और सरस्वती के आशीर्वाद से पूर्ण हुआ:

  • एक दिन, विभिन्न लोकों का दर्शन करते हुए, सर्वत्र गति वाले नारद जी इलावृत खंड में गए, जहां जंबुनदी प्रवाहित होती है तथा जांबुनद नामक सुवर्ण उत्पन्न होता है।
  • वहाँ उन्होंने वेदनगर नामक नगर देखा। वहाँ जिसको भी नारद जी ने देखा, वह विकलांग था। वहाँ की स्त्रियों और पुरुषों को अंग-भंग देखा।
  • उन सबको देखकर मुनि ने कहा, “अहो यह क्या बात है? आप सब लोगों के मुंह कमल के समान हैं और शरीर दिव्य हैं। आपलोग देवता हैं, या उपदेवता, अथवा कोई ऋषि श्रेष्ठ? आप अंग-भंग कैसे हो गए?”
  • उनके इस प्रकार पूछने पर वे सब दीनचित्त होकर बोले, “महर्षे! हमलोग राग हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी के एक पुत्र पैदा हुआ है, जिसका नाम नारद है। वह महामुनि प्रेम से उन्मत्त होकर बेसमय ध्रुवपद गाता हुआ इस पृथ्वी पर विचरा करता है। उसके ताल-स्वर से रहित असामयिक गानों-विगानों से हम सब अंग-भंग हो गए हैं।”
  • उनकी यह बात सुनकर नारद जी को बड़ा विस्मय हुआ और वे रागों से हँसते हुए से बोले, “रागगण! मुझे शीघ्र बताओ नारद मुनि को किस प्रकार से काल और ताल का ज्ञान हो सकता है, जिससे वह स्वरयुक्त गीत गा सकें।”
  • रागों ने कहा, “अगर स्वयं सरस्वती देवी नारद को संगीत की शिक्षा दें तो ही वह ताल से गाना सीख पाएंगे।”
  • उनकी यह बात सुनकर नारद सरस्वती का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिए तुरंत शुभ्रगिरी पर चले गए। वहाँ उन्होंने सौ वर्षों तक अत्यंत दुष्कर तपस्या की और अन्न-जल छोड़कर केवल सरस्वती जी के ध्यान में मन लगा लिया। नारद जी की तपस्या से वह पर्वत शुभ्र नाम छोड़कर नारदगिरी के नाम से प्रख्यात हो गया।

सरस्वती का आशीर्वाद:

  • नारद जी की तपस्या से प्रसन्न होकर श्री सरस्वती वहाँ आईं। तब नारद जी ने उनसे मांगा, “मुझे स्वर-ताल का ज्ञान दीजिए, जिससे मैं अविनाशी एवं सर्वोत्कृष्ट रासमंडल में सर्वोपरि और अद्वितीय संगीतज्ञ हो जाऊं।”
  • तब प्रसन्न हुई वाग्देवता ने महात्मा नारद को स्वरब्रह्मा से विभूषित एक वीणा प्रदान की। साथ ही राग-रागिनी, ताल, लय और स्वरों का ज्ञान भी दिया। ग्रामों के छप्पन कोटि भेद और असंख्य अवांतर भेद का भी ज्ञान नारद जी को प्राप्त हुआ। सरस्वती देवी ने स्वरगम्य सिद्धपदों द्वारा नारद जी को संगीत की शिक्षा दी।
  • इसके उपरांत, नारद जी गंधर्व नगर में गए और तुंबरू नामक गंधर्व को अपना शिष्य बनाकर नारद जी मधुर स्वर में वीणा बजाते हुए श्री हरि के गुणों का गान करने लगे।

नारद मुनि और श्री कृष्ण की गोलोक धाम में भेंट और ब्रह्मद्रव की उत्पत्ति

नारद जी की संगीत कला इतनी अद्भुत थी कि इसने स्वयं भगवान श्री कृष्ण को भी मोहित कर दिया।

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  • तदन्तर उनके मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि किन लोगों के सामने इस मनोहर रागरूप गीत का ज्ञान करना चाहिए, इसको सुनने का पात्र कौन है? इसकी खोज करते हुए नारद जी देवराज इंद्र के पास आए, और जब उन्होंने देखा कि देवराज इंद्र को इस विषय में कोई रुचि नहीं, तो वह अपने सखा तुंबरू को लेकर सूर्यलोक गए।
  • वहाँ सूर्यदेव को रथ के द्वारा भागे जाते देख, देवर्षि महामुनि नारद वहाँ से तत्काल शिव जी के पास चले गए। भूतनाथ शिव के नेत्र ध्यान में निश्चल हैं, यह देख नारद जी ब्रह्मलोक गए। ब्रह्मा जी को सृष्टि रचना में व्यग्र देख, वे वहाँ भी न ठहरे सके।
  • उस स्थान से वह वैकुंठ धाम चले गए। उस समय भगवान विष्णु को किसी भक्त पर कृपा करने कहीं जाते देख नारद जी तुंबरू के साथ अन्यत्र चल दिए, और करोड़ों ब्रह्मांड-समूहों को लांघकर प्रकृति से परे गोलोक धाम में जा पहुंचे।
  • वहाँ उन दोनों ने श्री कृष्ण का दर्शन किया। फिर प्रणाम और परिक्रमा करके वे श्री कृष्ण की आज्ञा से उनकी स्तुति करके उनके गुणों का गान करने के लिए उद्यत हुए।
  • वहाँ श्री कृष्ण के सामने नारद जी ने तुंबरू सहित वीणावादन की अद्वितीय कला को प्रस्तुत किया। श्री कृष्ण उस वीणा की प्रशंसनीय स्वर लहर की सराहना करते हुए जलरूप हो गए। उस समय उनके शरीर से जो जल प्रकट हुआ, उसे ब्रह्मद्रव के नाम से लोग जानते हैं।

दक्ष प्रजापति का शाप: जानिए क्यों झगड़ा करवाते थे नारद मुनि

लोकप्रिय धारणा के विपरीत, नारद मुनि जी का ‘झगड़ा करवाना’ अक्सर किसी बड़े उद्देश्य के लिए होता था। दक्ष प्रजापति का शाप इस पहलू को स्पष्ट करता है।

यहाँ यह भी स्पष्ट होगा नारद मुनि सदैव घूमते या भटकते क्यीन रहते हैं

  • भागवत पुराण स्कन्द 6 अध्याय 5 के अनुसार, जब दक्ष प्रजापति को यह ज्ञात हुआ कि उनके सभी पुत्र नारद मुनि की बातों में आकर अपने कर्तव्य की उपेक्षा कर रहे हैं, तो वे नारद जी पर बड़े क्रोधित हुए।
  • वे आवेश में भरकर नारद जी से बोले: “ओ दुष्ट! तुमने झूठमूठ साधुओं का बाना पहन रखा है। हमारे भोले-भाले बालकों को भिक्षुकों का मार्ग दिखाकर तुमने हमारा बड़ा अत्याचार किया है। तुमने उनके दोनों लोकों का सुख चौपट कर दिया। तुम इस प्रकार बच्चों की बुद्धि बिगाड़ते फिरते हो। तुमने भगवान् के पार्षदों में रहकर उनकी कीर्ति में कलंक ही लगाया। सचमुच तुम बड़े निर्लज्ज हो। तुम उन लोगों से भी वैर करते हो, जो किसी से वैर नहीं करते। तुम तो हमारी वंश परम्परा का उच्छेद करने पर ही उतारू हो रहे हो। इसलिये मूढ़! जाओ, लोक-लोकान्तरों में भटकते रहो। कहीं भी तुम्हारे लिये ठहरने को ठौर नहीं होगी।”
  • देवर्षि नारद ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया। संसार में बस, साधुता इसी का नाम है कि बदला लेने की शक्ति रहने पर भी दूसरे का किया हुआ अपकार सह लिया जाए।

यह घटना दर्शाती है कि नारद जी अपने ऊपर लगाए गए आरोपों को स्वीकार करते थे, लेकिन उनके कार्यों का मूल उद्देश्य हमेशा मार्गदर्शन और आध्यात्मिक उत्थान ही रहा है। वे जानते थे कि उनके हस्तक्षेप से अंततः किसी बड़ी दैवीय योजना या लोक-कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा, भले ही तात्कालिक रूप से वह ‘कलह’ जैसा प्रतीत हो।


नारद मुनि के प्रमुख कार्य: ज्ञान, प्रेरणा और मार्गदर्शक

यूं तो नारद जी ने कई महान कार्य किए हैं, जिनकी सूची बना पाना असंभव सा है। उन्हीं में से उनके कुछ प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं:

  • रामायण की प्रेरणा: वह नारद ही थे जिन्होंने वाल्मीकि जी को रामायण की रचना करने के लिए प्रोत्साहित किया था।
  • महाभारत की प्रेरणा: वेद व्यास जी को महाभारत रचने की प्रेरणा भी नारद जी ने ही दी थी।
  • आत्मज्ञान का उपदेश: नारद जी ने राजा प्राचीनबर्हि को आत्मज्ञान – जीव व ईश्वर का स्वरूप – का उपदेश देते हुए बताया कि जीव का सखा ईश्वर है। आत्मा निर्गुण है, स्वयं प्रकाश है; परंतु जब तक आत्मस्वरूप भगवान के स्वरूप को नहीं जान लेता तब तक प्रकृति के गुणों में ही बंधा रहता है।
  • शुकदेव की प्राप्ति में सहायक: देवी भागवत प्रथम स्कन्ध के अनुसार, नारद जी ने ही महर्षि वेद व्यास जी को कल्याणकारी पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से देवी भगवती का ध्यान करने का सुझाव दिया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें शुकदेव के रूप में पुत्र प्राप्ति हुई।
  • कंस को सचेत करना: वह नारद जी थे जिन्होंने कंस को यह कहकर सचेत कर दिया था कि दैत्यों के कारण पृथ्वी का भार बढ़ गया है, इसलिए देवताओं की ओर से अब उनके वध की तैयारी की जा रही है। देवर्षि नारद की यह बात सुनकर कंस को यह निश्चय हो गया कि देवकी के गर्भ से विष्णु भगवान ही उसे मारने के लिए पैदा होने वाले हैं। इसलिए उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी-बेड़ी से जकड़ कर कारागार में डाल दिया था। (यह हस्तक्षेप कंस के अधर्म को और बढ़ाने और अंततः उसके वध का मार्ग प्रशस्त करने के लिए आवश्यक था।)
  • रावण को शाप: कंभ रामायण के युद्ध कांड के अनुसार, एक समय रावण ने नारद जी से ॐ का अर्थ बताने को कहा और जब नारद जी ने उसका अनुरोध स्वीकार नहीं किया तो रावण ने नारद जी को धमकाते हुए कहा कि अगर तुमने ऐसा नहीं किया मैं तुम्हारी जीभ को काट दूंगा। उस समय नारद जी ने रावण को शाप देते हुए कहा था कि एक दिन तुम्हारे यह दस सिर कट जाएंगे
  • अनिरुद्ध की सूचना: वो नारद जी ही थे जिन्होंने द्वारका में जाकर यह सूचना दी थी कि बाणासुर ने श्री कृष्ण के पोते अनिरुद्ध को बंदी बना लिया है।
  • यदुवंश के विनाश का शाप: महर्षि विश्वामित्र, कण्व के साथ देवर्षि नारद ने ही सांभ को एक मूसल को जन्म देने का शाप दिया था, जो आगे चलकर यदुवंश के विनाश का कारण बना। (यह शाप भी दैवीय योजना का एक हिस्सा था, जिसके द्वारा यदुवंश का संहार होना था)।
  • राजा चित्रकेतु का मार्गदर्शन: नारद जी ने राजा चित्रकेतु को ऐसी विद्या का ज्ञान दिया था जिससे वे केवल सात दिनों की साधना से ही विद्याधरों के राजा बन गए।

ऐसे ही न जाने कितने महान कार्य नारद मुनि जी द्वारा किए गए हैं जिनका वर्णन एक ही वीडियो या पोस्ट में नहीं किया जा सकता।


कितने शक्तिशाली हैं नारद मुनि?

नारद मुनि की शक्ति को केवल अस्त्रों या शारीरिक बल से नहीं मापा जा सकता। उनकी शक्ति उनके ज्ञान, भक्ति, सूचनाओं तक पहुँच, और किसी भी लोक में बिना रोक-टोक पहुँचने की क्षमता में निहित है।

  • त्रिकालदर्शी: वे भूत, वर्तमान और भविष्य को जानने वाले थे।
  • सर्वत्र गामी: वे तीनों लोकों – स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल – में कहीं भी तुरंत पहुँच सकते थे।
  • भगवान के पार्षद: वे स्वयं भगवान विष्णु के परम भक्त और पार्षद हैं, जिनके पास सीधे भगवान तक पहुँचने का अधिकार है। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी शक्ति है।
  • ज्ञान और संगीत के धनी: वे स्वयं वीणावादन और संगीत के उद्गाता हैं और किसी को भी ज्ञान प्रदान करने में सक्षम हैं।
  • दैवीय योजनाओं के सूत्रधार: उनके ‘झगड़े’ अक्सर दैवीय इच्छाओं को पूरा करने और धर्म की स्थापना के लिए एक माध्यम होते थे। वे सिर्फ ‘झगड़ा’ नहीं करवाते थे, बल्कि घटनाओं को एक निश्चित दिशा में मोड़ते थे ताकि धर्म की स्थापना हो सके।

नारद मुनि पर हमारा विडियो अवश्य देखें

निष्कर्ष: देवर्षि नारद – कलह नहीं, कल्याण के अग्रदूत

नारद मुनि भारतीय पौराणिक कथाओं के सबसे जटिल और महत्वपूर्ण पात्रों में से एक हैं। उन्हें केवल ‘कलहप्रिय’ कहना उनके विराट व्यक्तित्व और उनकी भूमिका को कम आंकना होगा। वे वास्तव में सर्वश्रेष्ठ वैष्णव, ज्ञान के सूर्य, भगवान के प्रिय पार्षद और तीनों लोकों के शुभचिंतक थे। उनके कार्य, चाहे वे प्रत्यक्ष रूप से कैसे भी दिखें, अंततः धर्म की स्थापना, अधर्म के विनाश और जीवों के कल्याण की दिशा में ही थे। उनकी यात्राएँ, उनके शाप और वरदान, और उनके ज्ञानोपदेश – ये सभी हमें जीवन के कर्म, धर्म और मोक्ष के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

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