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निर्जला एकादशी व्रत कथा: क्यों है यह सबसे कठिन और फलदायी व्रत?
परिचय
सनातन धर्म में एकादशी का व्रत अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है, और ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली निर्जला एकादशी का विशेष स्थान है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ‘निर्जला’ का अर्थ है ‘बिना जल के’। यह व्रत बिना अन्न और जल ग्रहण किए किया जाता है, जिसके कारण इसे सभी एकादशियों में सबसे कठोर और पुण्यदायी माना जाता है। मान्यता है कि इस एक एकादशी का व्रत रखने से साल भर की सभी 24 एकादशियों का फल प्राप्त हो जाता है। आइए, जानते हैं इस महान व्रत के पीछे की पौराणिक कथा, जो महाभारत काल से जुड़ी है।
निर्जला एकादशी की पौराणिक व्रत कथा
महाभारत काल में जब पांडव वनवास में थे, तब वे सभी एकादशी के व्रत नियमपूर्वक रखते थे। युधिष्ठिर, कुंती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव, सभी भगवान विष्णु को समर्पित इन व्रतों का पालन करते थे। लेकिन पांडवों में दूसरे भाई, महाबली भीमसेन अपनी भूख को नियंत्रित नहीं कर पाते थे। उन्हें भोजन बहुत प्रिय था और वे बिना खाए रह नहीं सकते थे।

एक दिन भीमसेन इस बात को लेकर बहुत चिंतित हुए। उन्हें लगा कि वह एकादशी का व्रत न करके भगवान विष्णु का अनादर कर रहे हैं, जबकि उनके सभी भाई और माता एकादशी का व्रत करते हैं। अपनी इस दुविधा को लेकर भीमसेन महर्षि वेदव्यास के पास पहुंचे।
भीम ने महर्षि वेदव्यास से पूछा, “हे पितामह! मेरी भूख इतनी प्रबल है कि मैं एकादशी के दिन भोजन के बिना नहीं रह पाता। मेरे भाई और माता एकादशी का व्रत करते हैं और मुझसे भी व्रत रखने को कहते हैं। मैं साल की सभी 24 एकादशियों का व्रत कैसे कर सकता हूँ? कृपया मुझे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे मुझे एकादशी व्रत का पूरा पुण्य मिल सके, बिना भोजन त्याग के या कम से कम व्रत रखकर।”
महर्षि वेदव्यास ने भीम की समस्या को समझा और मुस्कुराते हुए कहा, “हे वायुपुत्र! यदि तुम वर्षभर की सभी एकादशियों का व्रत करने में असमर्थ हो, तो ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करो। इस एकादशी का नाम निर्जला एकादशी है। इस दिन तुम्हें अन्न तो क्या, जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करनी होगी। यह व्रत अत्यंत कठोर है, लेकिन इसका पुण्य इतना महान है कि तुम्हें सभी एकादशियों के व्रतों का फल प्राप्त हो जाएगा।”
वेदव्यास जी ने आगे बताया कि जो व्यक्ति इस निर्जला एकादशी का व्रत पूरी श्रद्धा और निष्ठा के साथ करता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है और वह अंत में भगवान विष्णु के परमधाम को प्राप्त होता है। मृत्यु के समय उसे यमदूतों का भय नहीं होता, बल्कि भगवान के पार्षद उसे पुष्पक विमान में बिठाकर स्वर्ग ले जाते हैं।
भीमसेन ने महर्षि वेदव्यास की बात मानकर निर्जला एकादशी का व्रत करने का दृढ़ संकल्प लिया। उन्होंने पूरे दिन अन्न और जल का त्याग किया। व्रत के कठोर नियमों का पालन करने के कारण अगले दिन सूर्योदय होते ही भीम मूर्छित हो गए। तब सभी पांडवों और द्रौपदी ने उन्हें तुलसी दल, गंगाजल और पंचामृत पिलाकर उनकी मूर्छा दूर की।
इस घटना के बाद से ही इस एकादशी को भीमसेनी एकादशी या पांडव एकादशी के नाम से भी जाना जाने लगा। भीम ने इस व्रत को सफलतापूर्वक पूर्ण किया और भगवान विष्णु की असीम कृपा प्राप्त की।
निर्जला एकादशी का महत्व
निर्जला एकादशी का व्रत न केवल पापों से मुक्ति दिलाता है, बल्कि यह शारीरिक और मानसिक शुद्धिकरण का भी प्रतीक है। यह व्रत हमें आत्म-नियंत्रण, सहनशीलता और भगवान के प्रति अगाध श्रद्धा सिखाता है। इस दिन भगवान विष्णु की पूजा-अर्चना करने और दान-पुण्य करने का विशेष महत्व है। जल दान का भी इस दिन बहुत पुण्य माना जाता है।
व्रत विधि और नियम
- निर्जल रहना: इस दिन सूर्योदय से लेकर अगले दिन द्वादशी तिथि के सूर्योदय तक बिना अन्न और जल के रहना होता है।
- भगवान विष्णु की पूजा: भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की विधि-विधान से पूजा करें।
- दान-पुण्य: इस दिन जल, वस्त्र, अन्न, फल आदि का दान करना अत्यंत शुभ माना जाता है।
- पारण: द्वादशी तिथि को व्रत का पारण करें। स्नान आदि से निवृत होकर भगवान केशव की पूजा करें, फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भोजन ग्रहण करें।
निष्कर्ष
निर्जला एकादशी का व्रत वास्तव में त्याग, तपस्या और श्रद्धा का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी यदि हम ईश्वर पर विश्वास रखें और नियमों का पालन करें, तो असंभव भी संभव हो सकता है। यदि आप साल भर की एकादशी का व्रत नहीं रख पाते हैं, तो निर्जला एकादशी का व्रत करके सभी व्रतों का फल प्राप्त कर सकते हैं।
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