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वट पूर्णिमा व्रत 2025: अमर सुहाग और अखंड सौभाग्य का महापर्व (पूर्ण विधि, कथा और महत्व)
हिंदू धर्म में सुहागिन महिलाओं के लिए वट पूर्णिमा व्रत का अत्यधिक महत्व है। यह पर्व ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है, जो मुख्य रूप से महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में प्रचलित है। उत्तर भारत में इसे वट सावित्री अमावस्या के रूप में मनाया जाता है, हालाँकि व्रत का महत्व और कथा समान ही रहती है। यह व्रत पति की लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और अखंड सौभाग्य की कामना के लिए रखा जाता है।
वट पूर्णिमा का यह पावन पर्व, देवी सावित्री के अपने पति सत्यवान के प्राणों को यमराज से वापस लाने की अविस्मरणीय गाथा से जुड़ा है। इस दिन वट वृक्ष (बरगद का पेड़) की पूजा का विशेष विधान है, जिसे त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश – का प्रतीक माना जाता है। वट वृक्ष अपनी विशालता और दीर्घायु के लिए प्रसिद्ध है, और यही कारण है कि इसे अमरत्व, उर्वरता और वंश वृद्धि का प्रतीक भी माना जाता है। इस व्रत को रखने से न केवल वैवाहिक जीवन में सुख-समृद्धि आती है, बल्कि पारिवारिक जीवन में भी खुशहाली और सद्भाव बना रहता है। यह व्रत महिलाओं की पति के प्रति अटूट निष्ठा, प्रेम और समर्पण का प्रतीक है।
इस विस्तृत ब्लॉग पोस्ट में, हम वट पूर्णिमा व्रत 2025 की तिथि, शुभ मुहूर्त, पूजा की विस्तृत विधि, व्रत कथा, इसका धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व, और इस दिन किए जाने वाले विशेष उपायों पर गहराई से चर्चा करेंगे। हमारा लक्ष्य आपको इस पवित्र व्रत से संबंधित हर आवश्यक जानकारी प्रदान करना है ताकि आप इसे पूरी श्रद्धा और विधि-विधान के साथ संपन्न कर सकें।

वट पूर्णिमा व्रत 2025 की तिथि और शुभ मुहूर्त
वट पूर्णिमा व्रत हिंदू पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। वर्ष 2025 में, यह शुभ तिथि 10 जून 2025, मंगलवार को पड़ रही है। इस दिन व्रत रखकर विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है।
ज्येष्ठ पूर्णिमा तिथि प्रारंभ: 10 जून 2025, मंगलवार, सुबह 11 बजकर 35 मिनट से ज्येष्ठ पूर्णिमा तिथि समाप्त: 11 जून 2025, बुधवार, दोपहर 01 बजकर 13 मिनट तक
पूजा का शुभ मुहूर्त: वट पूर्णिमा की पूजा के लिए सबसे शुभ समय 10 जून 2025 को सुबह 08 बजकर 52 मिनट से दोपहर 02 बजकर 05 मिनट तक रहेगा। इस अवधि में पूजा करना अत्यंत फलदायी माना जाता है।
स्नान-दान मुहूर्त: पूर्णिमा तिथि पर स्नान और दान का भी विशेष महत्व होता है। 11 जून 2025 को सुबह 04 बजकर 02 मिनट से सुबह 04 बजकर 42 मिनट तक स्नान और दान के लिए उत्तम मुहूर्त रहेगा। इस दिन चंद्रोदय शाम 6 बजकर 45 मिनट पर होगा, जिसके बाद चंद्र देव की पूजा भी की जा सकती है।
वट सावित्री अमावस्या और वट पूर्णिमा में अंतर: यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में वट सावित्री व्रत दो अलग-अलग तिथियों पर मनाया जाता है।
- वट सावित्री अमावस्या: यह ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को मनाया जाता है। मुख्य रूप से उत्तर भारत (जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा) और नेपाल के कुछ हिस्सों में यह व्रत इस दिन रखा जाता है। वर्ष 2025 में, वट सावित्री अमावस्या 26 मई 2025 को मनाई जाएगी।
- वट पूर्णिमा व्रत: यह ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा और दक्षिण भारत के राज्यों में यह व्रत इस दिन रखा जाता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, वर्ष 2025 में यह 10 जून को है।
हालांकि तिथियों में अंतर है, दोनों ही व्रतों का मूल उद्देश्य, पूजा विधि और सत्यवान-सावित्री की कथा समान रहती है। दोनों ही दिन सुहागिन महिलाएं अपने पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं। यह क्षेत्रीय पंचांग पद्धतियों (अमावस्यांत और पूर्णिमांत) के कारण होने वाला अंतर है।
वट पूर्णिमा व्रत की प्रामाणिक कथा: सत्यवान-सावित्री की अमर गाथा
वट पूर्णिमा व्रत की जड़ें पौराणिक काल की एक ऐसी कथा में निहित हैं जो प्रेम, निष्ठा, साहस और पतिव्रता धर्म की पराकाष्ठा को दर्शाती है। यह कथा है राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री और उनके पति सत्यवान की।
प्राचीन काल में मद्र देश के धर्मात्मा राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने कई वर्षों तक कठोर तपस्या और यज्ञ किए। उनकी इस अनवरत साधना से प्रसन्न होकर, सावित्री देवी ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान दिया कि उन्हें एक तेजस्वी कन्या की प्राप्ति होगी। देवी के आशीर्वाद से जन्मी उस कन्या का नाम उन्होंने देवी के नाम पर ही सावित्री रखा। सावित्री बचपन से ही असाधारण रूप से सुंदर, बुद्धिमान, विनम्र और धर्मपरायण थीं। उनका तेज ऐसा था कि कोई भी राजकुमार उन्हें विवाह के लिए मांगने का साहस नहीं कर पाता था।
जब सावित्री विवाह योग्य हुईं, तो राजा अश्वपति ने उन्हें स्वयं अपने लिए वर चुनने की अनुमति दी। सावित्री ने विभिन्न राज्यों की यात्रा की और अंततः साल्व देश के निष्कासित राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को अपने जीवनसाथी के रूप में चुना। सत्यवान अपने माता-पिता के साथ वन में रहते थे, जहाँ उनके पिता अपनी दृष्टि खो चुके थे और अपना राज्य भी गंवा चुके थे। सत्यवान स्वयं भी अत्यंत धर्मात्मा, सत्यनिष्ठ, और अपने माता-पिता के प्रति समर्पित थे।
सावित्री के इस चुनाव के बारे में जब देवर्षि नारद को पता चला, तो वे राजा अश्वपति के पास आए और उन्हें आगाह किया। नारद जी ने बताया कि यद्यपि सत्यवान सभी गुणों से संपन्न हैं, वे अल्पायु हैं। उन्होंने भविष्यवाणी की कि सत्यवान की मृत्यु ठीक एक वर्ष बाद होगी, जब उनकी आयु पूर्ण हो जाएगी। नारद जी की यह बात सुनकर राजा अश्वपति अत्यंत चिंतित और दुखी हुए। उन्होंने सावित्री को किसी और वर का चुनाव करने की सलाह दी,
परंतु सावित्री अपने निर्णय पर अटल रहीं। उन्होंने दृढ़ता से कहा कि “जब मैंने अपने मन से एक बार सत्यवान को अपना पति मान लिया है, तो अब मेरा मन किसी और को नहीं स्वीकार कर सकता। पति चाहे अल्पायु हो या दीर्घायु, मैंने अपना निर्णय कर लिया है और मैं इसे बदल नहीं सकती।”
सावित्री की अटूट निष्ठा और दृढ़ता देखकर राजा अश्वपति ने अंततः सत्यवान से उनका विवाह कर दिया। सावित्री ने राजसी वस्त्र त्यागकर साधारण वेश धारण किया और अपने पति सत्यवान तथा अंधे सास-ससुर की सेवा में लीन हो गईं। उन्होंने वन में रहकर भी अपने सभी गृहस्थ धर्मों का निष्ठापूर्वक पालन किया।
जैसे-जैसे नारद जी द्वारा बताई गई सत्यवान की मृत्यु का दिन निकट आता गया, सावित्री के मन में चिंता बढ़ती गई। उन्होंने नारद जी द्वारा बताए गए तिथि से तीन दिन पहले से ही कठोर उपवास (त्रिरत्र व्रत) रखना शुरू कर दिया। उनके मुख पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट दिखने लगी थीं।
मृत्यु के निर्धारित दिन पर, जब सत्यवान वन में लकड़ी काटने जा रहे थे, तो सावित्री ने उनसे अनुरोध किया कि वह भी उनके साथ जाएंगी। सत्यवान ने पहले तो मना किया, लेकिन सावित्री के आग्रह और उनकी दृढ़ता को देखकर उन्होंने उन्हें अपने साथ ले जाने की अनुमति दे दी। वन में पहुँचकर सत्यवान लकड़ी काटने लगे, और सावित्री उनके पास बैठकर नारद जी की भविष्यवाणी पर विचार करती रहीं। कुछ देर बाद, सत्यवान के सिर में अचानक तेज दर्द हुआ और वे मूर्छित होकर एक वट वृक्ष के नीचे गिर पड़े।
सावित्री तुरंत समझ गईं कि वह घड़ी आ गई है जिसका नारद जी ने जिक्र किया था। उन्होंने सत्यवान के सिर को अपनी गोद में रख लिया। कुछ ही पल में, उन्होंने देखा कि एक दिव्य और तेजस्वी पुरुष, भैंसे पर सवार होकर, भयानक यमदूतों के साथ वहाँ आए हैं। वे कोई और नहीं, स्वयं मृत्यु के देवता यमराज थे। यमराज ने सत्यवान के शरीर से उनके सूक्ष्म प्राण को पाश में बांधा और दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे।
सावित्री भी पतिव्रता धर्म का पालन करते हुए यमराज के पीछे-पीछे चलने लगीं। यमराज ने सावित्री को कई बार रोका और उन्हें वापस लौटने को कहा, यह भी बताया कि मनुष्य अपनी आयु पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है और उन्हें उनके मार्ग में बाधा नहीं डालनी चाहिए। परंतु सावित्री ने अपनी निष्ठा और तर्कों से उन्हें प्रभावित करना जारी रखा। उन्होंने यमराज से कहा कि “जहाँ मेरे पति जाते हैं, वहीं मुझे जाना चाहिए। यही सनातन धर्म है। आप धर्मराज हैं और धर्म के नियमों का पालन करते हैं। कृपया मेरे पति के प्राण वापस लौटा दें।”

सावित्री ने यमराज के साथ धर्म, सत्य, दान और पतिव्रता धर्म के महत्व पर लगातार संवाद किया। उनकी विद्वत्ता, तर्कशक्ति, और पति के प्रति अटूट प्रेम को देखकर यमराज अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने सावित्री से कहा कि सत्यवान के प्राणों को छोड़कर वह कुछ भी मांग सकती हैं। सावित्री ने यमराज से एक-एक करके तीन वरदान मांगे:
- सावित्री के अंधे ससुर राजा द्युमत्सेन की दृष्टि वापस लौट आए।
- उनके ससुर का छिना हुआ राज्य वापस मिल जाए।
- सावित्री को सौ पुत्रों की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हो।
यमराज ने तीनों वरदान प्रदान कर दिए। अंतिम वरदान सुनकर सावित्री ने पुनः यमराज से कहा, “हे धर्मराज! आपने मुझे सौ पुत्रों की माँ बनने का वरदान दिया है, परंतु मैं तो पतिव्रता हूँ। मेरे पति के प्राण तो आपके साथ हैं। पति के बिना मैं पुत्रवती कैसे हो सकती हूँ? यदि आप मुझे सौ पुत्रों की माँ बनाना चाहते हैं, तो आपको मेरे पति के प्राण लौटाने ही होंगे।”
सावित्री के इस अकाट्य तर्क और उनकी पतिव्रता से यमराज निरुत्तर हो गए। वे सावित्री की निष्ठा और बुद्धिमत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सत्यवान के प्राण वापस लौटा दिए। यमराज ने सावित्री को अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद दिया और अंतर्ध्यान हो गए।
सत्यवान जीवित हो गए और नींद से जागे हुए व्यक्ति की तरह उठ बैठे। सावित्री उन्हें लेकर उसी वट वृक्ष के पास लौटीं जहाँ सत्यवान ने अपने प्राण त्यागे थे। वहाँ पहुंचकर उन्होंने देखा कि उनके ससुर की दृष्टि भी लौट आई है और उनका राज्य भी वापस मिल गया है। इस प्रकार, सावित्री ने अपनी पतिव्रता धर्म और असाधारण बुद्धिमत्ता से न केवल अपने पति के प्राणों को वापस पाया, बल्कि अपने पूरे परिवार को भी सभी कष्टों से मुक्ति दिलाई और खोया हुआ वैभव लौटाया।
यह घटना ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन हुई थी, और तभी से सुहागिन महिलाएं इस दिन वट वृक्ष की पूजा कर अपने पति की लंबी आयु और सौभाग्य की कामना करती हैं।
वट पूर्णिमा व्रत का महत्व और पूजा विधि
वट पूर्णिमा व्रत का हिंदू धर्म में गहरा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। यह व्रत नारी शक्ति, पतिव्रता धर्म, अटूट प्रेम और विश्वास का प्रतीक है।
वट वृक्ष का महत्व: वट वृक्ष, जिसे बरगद का पेड़ भी कहते हैं, भारतीय संस्कृति और धर्म में अत्यंत पूजनीय है। इसे “कल्पवृक्ष” भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है इच्छाओं को पूरा करने वाला वृक्ष।
- त्रिदेव का निवास: ऐसी मान्यता है कि वट वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु और ऊपरी शाखाओं में भगवान शिव का वास होता है। इसलिए इस वृक्ष की पूजा तीनों देवताओं की पूजा के समान मानी जाती है।
- दीर्घायु और अमरत्व का प्रतीक: वट वृक्ष अपनी लंबी आयु और विशालता के लिए जाना जाता है। इसी कारण यह दीर्घायु, अमरत्व, स्थिरता और शक्ति का प्रतीक है। महिलाएं इस वृक्ष की पूजा करके अपने पति की लंबी आयु और स्वस्थ जीवन की कामना करती हैं।
- सावित्री का जुड़ाव: पौराणिक कथा के अनुसार, सावित्री ने इसी वट वृक्ष के नीचे सत्यवान के प्राणों को यमराज से वापस पाया था। इसलिए यह वृक्ष इस कथा का एक अभिन्न अंग बन गया है।
- वैज्ञानिक महत्व: वट वृक्ष पर्यावरण के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह बड़ी मात्रा में ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है और इसके औषधीय गुण भी होते हैं। यह वातावरण को शुद्ध करने में सहायक है।
- बाहरी लिंक 1: वट वृक्ष के वैज्ञानिक और पर्यावरणीय महत्व के बारे में अधिक जानने के लिए, आप पर्यावरण मंत्रालय की वेबसाइट या किसी प्रतिष्ठित वनस्पति विज्ञान संस्थान की जानकारी पर जा सकते हैं।
वट पूर्णिमा व्रत की विस्तृत पूजा विधि (स्टेप-बाय-स्टेप):
- सुबह का स्नान और संकल्प: वट पूर्णिमा के दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करें। स्वच्छ और सुंदर वस्त्र (विशेषकर लाल या पीले रंग के, सुहाग के प्रतीक) धारण करें। गहने पहनें और सोलह श्रृंगार करें। पूजा का संकल्प लें कि आप पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य और अखंड सौभाग्य के लिए यह व्रत विधि-विधान से करेंगी।
- पूजा सामग्री की तैयारी:
- वट वृक्ष की पूजा के लिए एक टोकरी में पूजा की सभी सामग्री एकत्रित कर लें। इसमें होनी चाहिए: जल से भरा कलश, कच्चे सूत या कलावा का धागा, रोली, कुमकुम, हल्दी, अक्षत (चावल), सुगंधित फूल (गेंदा, गुलाब), फल (विशेषकर आम, केला, लीची), भीगे हुए चने या दाल, मिठाई (पूड़ी, मालपुआ, गुड़हल आदि), धूप, दीपक, अगरबत्ती, कपूर, सिंदूर, बिंदी, मेहंदी, चूड़ियाँ, और बांस का पंखा।
- सावित्री और सत्यवान की मूर्तियां या तस्वीरें (यदि उपलब्ध हों)।
- वट वृक्ष की पूजा:
- वट वृक्ष के पास जाएं (या यदि घर पर गमले में वट वृक्ष है तो उसकी पूजा करें)।
- सबसे पहले वट वृक्ष को जल चढ़ाएं।
- हल्दी, कुमकुम और रोली से वृक्ष के तने पर तिलक लगाएं।
- अक्षत और फूल अर्पित करें।
- कच्चे सूत या कलावे के धागे को वृक्ष के चारों ओर लपेटते हुए 7, 11, 21, 51 या 108 बार परिक्रमा करें। परिक्रमा करते समय पति की लंबी आयु और सौभाग्य की कामना करें। प्रत्येक परिक्रमा पर धागा लपेटते जाएं।
- पूजा सामग्री जैसे फल, भीगे चने, मिठाई आदि अर्पित करें।
- धूप और दीपक जलाएं।
- बांस के पंखे से वट वृक्ष को हवा करें, यह दर्शाता है कि आप अपने पति के जीवन में शीतलता और शांति ला रही हैं।
- व्रत कथा का श्रवण: वट वृक्ष के नीचे बैठकर या घर पर ही वट सावित्री व्रत की कथा (सत्यवान-सावित्री की कथा) सुनें या पढ़ें।
- आरती और प्रार्थना: पूजा के अंत में वट वृक्ष और देवी सावित्री की आरती करें। पति की लंबी आयु, सुख-समृद्धि और परिवार की खुशहाली के लिए सच्चे मन से प्रार्थना करें।
- बड़ों का आशीर्वाद: पूजा के बाद घर के बुजुर्गों, विशेषकर सास-ससुर और पति के पैर छूकर आशीर्वाद लें। सुहाग के सामान (बिंदी, चूड़ी, सिंदूर आदि) और फल-मिठाई अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करें।
- व्रत का पारण (व्रत तोड़ना): वट पूर्णिमा का व्रत निर्जला या फलाहारी रखा जाता है। अगले दिन सूर्योदय के बाद, पूजा-अर्चना के उपरांत, व्रत का पारण करें। पारण से पहले दान करना शुभ माना जाता है।

वट पूर्णिमा व्रत का धार्मिक और सामाजिक महत्व
वट पूर्णिमा व्रत केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और समाज में महिलाओं की शक्ति, प्रेम और निष्ठा का एक जीवंत प्रतीक भी है।
धार्मिक महत्व:
- अखंड सौभाग्य का वरदान: यह व्रत मुख्य रूप से पति की लंबी आयु और अखंड सौभाग्य के लिए रखा जाता है। सावित्री की कथा यह दर्शाती है कि सच्ची निष्ठा और पतिव्रता धर्म से मृत्यु के देवता को भी हराया जा सकता है।
- त्रिमूर्ति की पूजा: वट वृक्ष में त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का वास माना जाता है। इस वृक्ष की पूजा से इन तीनों देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है, जिससे जीवन में सुख, समृद्धि और शांति आती है। ब्रह्मा सृजन, विष्णु पालन और शिव संहार के देव हैं, और इन तीनों की संयुक्त शक्ति वैवाहिक जीवन को स्थिरता प्रदान करती है।
- पितृ शांति: कुछ मान्यताओं के अनुसार, इस दिन वट वृक्ष की पूजा करने से पितरों को भी शांति मिलती है और कुल में वृद्धि होती है।
- संतान प्राप्ति: जिन महिलाओं को संतान प्राप्ति में बाधा आ रही है, वे भी इस व्रत को संतान प्राप्ति की कामना के साथ रखती हैं, क्योंकि वट वृक्ष उर्वरता का प्रतीक है।
सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व:
- पारिवारिक बंधन मजबूत करना: यह व्रत पति-पत्नी के रिश्ते को और गहरा करता है। पत्नी अपने पति के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को इस व्रत के माध्यम से व्यक्त करती है, जिससे उनके रिश्ते में और अधिक आत्मीयता आती है।
- सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: वट पूर्णिमा जैसे व्रत हमारी प्राचीन परंपराओं और सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखते हैं। यह नई पीढ़ियों को हमारे धार्मिक और पौराणिक मूल्यों से जोड़ते हैं।
- नारी शक्ति का सम्मान: सावित्री की कथा भारतीय नारी की दृढ़ता, बुद्धिमत्ता और निष्ठा का प्रतीक है। यह कथा सदियों से महिलाओं को प्रेरणा देती रही है कि वे अपनी सूझबूझ और प्रेम से किसी भी चुनौती का सामना कर सकती हैं।
- सामुदायिक भावना: कई स्थानों पर महिलाएं सामूहिक रूप से वट वृक्ष की पूजा करती हैं, जिससे उनमें आपसी सौहार्द और सामुदायिक भावना बढ़ती है।
- प्रकृति संरक्षण: वट वृक्ष की पूजा अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण संरक्षण को भी बढ़ावा देती है। यह हमें प्रकृति के महत्व और पेड़ों के प्रति सम्मान सिखाती है
वट पूर्णिमा व्रत के नियम और सावधानियां
वट पूर्णिमा व्रत को विधि-विधान से संपन्न करने के लिए कुछ नियमों और सावधानियों का पालन करना आवश्यक है:
- स्वच्छता का ध्यान: व्रत के दिन और पूजा स्थल पर पूरी साफ-सफाई रखें। स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र ही पहनें।
- निर्णय पर अटल: एक बार व्रत का संकल्प लेने के बाद उसे पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ पूरा करें। व्रत तोड़ने का प्रयास न करें, जब तक कि कोई आपातकालीन स्थिति न हो।
- फलाहार या निर्जला: अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार व्रत करें। कुछ महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं (पानी भी नहीं पीतीं), जबकि कुछ फलाहार व्रत करती हैं (फल और जल ग्रहण करती हैं)।
- तामसिक भोजन से परहेज: व्रत के दिन और उससे एक दिन पहले भी प्याज, लहसुन, मांसाहार और शराब का सेवन न करें। सात्विक भोजन ही ग्रहण करें।
- पति के साथ सम्मान: इस दिन अपने पति से किसी भी प्रकार का विवाद न करें। उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करें और उनका आशीर्वाद लें।
- बासी भोजन न करें: पूजा में बासी भोजन या सामग्री का प्रयोग न करें। सभी चीजें ताजी और पवित्र होनी चाहिए।
- बरगद के फल का महत्व: पूजा में बरगद के फल (वटफल) का भी प्रयोग किया जाता है। इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करना शुभ माना जाता है।
- दान का महत्व: व्रत के समापन पर अपनी सामर्थ्य अनुसार दान अवश्य करें। सुहाग की सामग्री, वस्त्र या अन्न का दान विशेष रूप से फलदायी माना जाता है।
- बांस के पंखे का प्रयोग: पूजा में बांस के पंखे का प्रयोग करना शुभ माना जाता है। इससे पति के जीवन में सुख-शांति आती है।
- गर्भधारण और मासिक धर्म के दौरान: मासिक धर्म के दौरान पूजा करने से बचें। यदि आवश्यक हो, तो मानसिक रूप से पूजा करें या किसी अन्य महिला से अपने बदले पूजा करवाएं। गर्भावस्था के दौरान व्रत रखने से पहले चिकित्सक की सलाह अवश्य लें।
- निष्ठा और एकाग्रता: व्रत के दौरान मन को शांत और एकाग्र रखें। किसी भी प्रकार की नकारात्मकता से बचें और पूरी श्रद्धा से पूजा करें।
इन नियमों का पालन करने से वट पूर्णिमा व्रत का पूर्ण फल प्राप्त होता है और देवी सावित्री का आशीर्वाद बना रहता है।
वट पूर्णिमा और अन्य संबंधित त्योहार
वट पूर्णिमा व्रत भारतीय सांस्कृतिक कैलेंडर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह अन्य त्योहारों के साथ भी कुछ समानताएं या अंतर रखता है जो परिवार और वैवाहिक सुख पर केंद्रित हैं।
- करवा चौथ (Karwa Chauth): यह उत्तर भारत में मनाया जाने वाला एक और प्रमुख व्रत है जहाँ पत्नियां अपने पति की लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। हालांकि, करवा चौथ कार्तिक मास में आता है और इसकी पूजा विधि व कथा वट पूर्णिमा से भिन्न होती है।
- हरतालिका तीज (Hartalika Teej): भाद्रपद मास में मनाई जाने वाली हरतालिका तीज भी पति की लंबी आयु और सुखी वैवाहिक जीवन के लिए रखी जाती है। इसमें माता पार्वती और भगवान शिव की पूजा का विशेष महत्व होता है।
- अहोई अष्टमी (Ahoi Ashtami): यह व्रत संतान की लंबी आयु और कल्याण के लिए रखा जाता है। इसमें माता अहोई की पूजा की जाती है।
- तीज (Teej): यह त्योहार भी विवाहित महिलाओं द्वारा पति की लंबी आयु और अच्छे स्वास्थ्य के लिए मनाया जाता है, खासकर उत्तरी भारत में।
वट पूर्णिमा इन सभी व्रतों की तरह ही परिवार के कल्याण और वैवाहिक संबंधों की सुदृढ़ता पर जोर देती है, लेकिन इसकी अपनी एक अनूठी कथा, पूजा विधि और वट वृक्ष से जुड़ा विशिष्ट महत्व है। यह भारतीय संस्कृति की विविधता और गहनता को दर्शाता है जहाँ हर त्योहार का अपना एक विशेष स्थान और उद्देश्य होता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs) – वट पूर्णिमा व्रत
प्रश्न 1: वट पूर्णिमा व्रत किस महीने में आता है? उत्तर: वट पूर्णिमा व्रत ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है।
प्रश्न 2: वट पूर्णिमा व्रत 2025 में कब है? उत्तर: वर्ष 2025 में वट पूर्णिमा व्रत 10 जून 2025, मंगलवार को मनाया जाएगा।
प्रश्न 3: वट पूर्णिमा व्रत क्यों रखा जाता है? उत्तर: यह व्रत सुहागिन महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी आयु, उत्तम स्वास्थ्य और अखंड सौभाग्य की कामना के लिए रखा जाता है। यह सत्यवान-सावित्री की कथा पर आधारित है।
प्रश्न 4: क्या वट पूर्णिमा और वट सावित्री एक ही हैं? उत्तर: मूल कथा और महत्व समान हैं, लेकिन ये दो अलग-अलग तिथियों पर मनाए जाते हैं। वट सावित्री अमावस्या ज्येष्ठ अमावस्या को (मुख्यतः उत्तर भारत में) और वट पूर्णिमा ज्येष्ठ पूर्णिमा को (मुख्यतः महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत में) मनाई जाती है।
प्रश्न 5: वट वृक्ष की परिक्रमा कितनी बार करनी चाहिए? उत्तर: वट वृक्ष की 7, 11, 21, 51 या 108 बार परिक्रमा की जाती है। अपनी श्रद्धा और सुविधा अनुसार परिक्रमा की संख्या चुन सकते हैं।
प्रश्न 6: वट पूर्णिमा व्रत में क्या खाना चाहिए? उत्तर: यदि आप निर्जला व्रत नहीं रख रहे हैं, तो फल, दूध, दही और सात्विक फलाहार जैसे सूखे मेवे आदि का सेवन कर सकते हैं। नमक वाले भोजन से बचना चाहिए।
प्रश्न 7: वट पूर्णिमा व्रत में किस भगवान की पूजा होती है? उत्तर: इस व्रत में मुख्य रूप से वट वृक्ष की पूजा की जाती है, जिसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश का स्वरूप माना जाता है। साथ ही, देवी सावित्री की भी पूजा की जाती है।
प्रश्न 8: वट पूर्णिमा व्रत का पारण कैसे करते हैं? उत्तर: व्रत का पारण अगले दिन सूर्योदय के बाद, पूजा-अर्चना के उपरांत किया जाता है। पारण से पहले दान करना शुभ माना जाता है।
निष्कर्ष
वट पूर्णिमा व्रत भारतीय संस्कृति की उस गहरी आस्था और परंपरा का प्रतीक है, जहाँ प्रेम, निष्ठा और समर्पण को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। देवी सावित्री की अद्भुत कथा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति और अडिग संकल्प से जीवन की सबसे बड़ी बाधाओं को भी पार किया जा सकता है। यह व्रत केवल पति की लंबी आयु की कामना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैवाहिक रिश्ते की पवित्रता, पारिवारिक सौहार्द और प्रकृति के प्रति हमारे सम्मान को भी दर्शाता है। वट वृक्ष, अपनी विशालता और दीर्घायु के साथ, इन सभी मूल्यों का एक शक्तिशाली प्रतीक है।
omganpataye.com पर हमारा प्रयास है कि हम आपको ऐसे पावन पर्वों से जुड़ी सभी प्रामाणिक और विस्तृत जानकारी प्रदान करें। हमें उम्मीद है कि इस व्यापक ब्लॉग पोस्ट ने आपको वट पूर्णिमा व्रत 2025 को समझने और उसे सही विधि-विधान से संपन्न करने में मदद की होगी। इस व्रत के माध्यम से आप अपने वैवाहिक जीवन में सुख, शांति और समृद्धि को आकर्षित कर सकती हैं।
याद रखें, सच्ची श्रद्धा और पवित्र भावना ही किसी भी व्रत का मूल आधार है। वट पूर्णिमा व्रत के इस पावन अवसर पर, हम आपके और आपके परिवार के लिए अखंड सौभाग्य, उत्तम स्वास्थ्य और असीम खुशियों की कामना करते हैं।
