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शिवलिंग वास्तविकता में क्या है | शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई | What is the meaning of Shivlinga ?
शिवलिंग क्या है, कैसे हुई शिवलिंग की उत्पत्ति, क्या है इसका वास्तविक अर्थ, क्या शिवलिंग शिव जी का जननांग है, शिव लिंग के बारे में शास्त्रों में क्या लिखा है, आइये विस्तार से जानते हैं
शिवलिंग क्या है
कई लोग इसे गलती से पुरुष जननांग समझ लेते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। लोग ऐसा इसलिए सोचते हैं क्योंकि संस्कृत में ‘लिंग’ शब्द का उपयोग पहचान के प्रतीक के रूप में भी होता है। संस्कृत में ‘लिंगम’ शब्द का अर्थ है प्रतीक।
संस्कृत में सभी शब्द मूल धातु (धातु) और अंत के भाग (प्रत्यय) के साथ पूर्ण रूप से बनाए जाते हैं। सामान्यतः प्रत्ययों का कोई विशेष अर्थ नहीं होता, क्योंकि वे केवल शब्दों के अंत का हिस्सा होते हैं, न कि मुख्य शब्द। लेकिन कुछ प्रत्यय प्रतीकात्मक अर्थ रखते हैं या किसी को इंगित करते हैं, इन्हें ‘लिंग प्रत्यय’ या संक्षेप में ‘लिंग’ कहा जाता है, ये ऐसे शब्दों के अंत में होते हैं जिनका कोई अर्थ होता है।
ये प्रतीक विभिन्न प्रकार के होते हैं जैसे – पुरुष प्रत्यय, स्त्री प्रत्यय और अन्य। इन प्रत्ययों का प्रयोग यह पहचानने के लिए किया जाता है कि व्यक्ति पुरुष है, स्त्री है या नपुंसक लिंग का है। समय के साथ लोगों ने इसे गलत तरीके से समझा।
अगर यह पुरुष जननांग होता, तो ‘स्त्री लिंग’ शब्द स्त्री जाति को इंगित करने के लिए कैसे आता?
शास्त्रों में शिवलिंग के बारे में क्या कहा गया है?
लिंग पुराण के तीसरे अध्याय में प्रथम सृष्टि का वर्णन है। इसके अनुसार अदृश्य जो शिव हैं, वह दृश्य प्रपंच अर्थात लिंग का मूल है, इसलिए शिव को अलिंग कहते हैं और अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा गया है। इसीलिए यह दृश्य जगत भी शैव यानि शिवस्वरूप है। प्रधान और प्रकृति को ही उत्तमौलिंग कहते हैं। वह गंध, वर्ण, रसहीन है तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित है। परंतु शिव अगुणी, ध्रुव और अक्षय हैं। उनमें गंध, रस, वर्ण तथा शब्द, स्पर्श आदि लक्षण हैं। जगत आदि कारण, पंचभूत स्थूल और सूक्ष्म शरीर जगत का स्वरूप सभी अलिंग शिव से ही उत्पन्न होते हैं।
यह संसार पहले सात प्रकार से, आठ प्रकार से और ग्यारह प्रकार से उत्पन्न होता है और यह सभी अलिंग शिव की माया से व्याप्त है। सर्वप्रधान तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव रूप ही हैं, जिनमें वे एक स्वरूप से उत्पत्ति, दूसरे से पालन तथा तीसरे से संहार करते हैं। अतः उन्हें शिव का ही स्वरूप समझना चाहिए। वास्तव में कहा जाए तो ब्रह्मा रूप ही जगत है और अलिंग स्वरूप स्वयं इसके बीज बोने वाले हैं तथा वही परमेश्वर हैं। इसे और सरल भाषा में समझें तो वह निर्गुण ब्रह्म भगवान शिव अलिंग कहलाते हैं और वे ही लिंग अर्थात प्रकृति का मूल कारण हैं तथा स्वयं लिंग रूप अर्थात प्रकृति रूप भी हैं।
ऋग्वेद के 10वें मंडल के 129वें सूक्त (नासदीय सूक्त) में कहा गया है कि:
“सृष्टि के आरंभ में कुछ भी नहीं था। ईश्वर केवल आत्मा (या आत्मन) के रूप में थे, बिना किसी प्रतीक के। उनके मन में इच्छा उत्पन्न हुई और उसी से सब कुछ उत्पन्न हुआ।” इसका तात्पर्य है कि प्रारंभ में सब कुछ एक ही स्थान पर केंद्रित था। इसी सूक्त में आगे कहा गया है कि, लिंगम ने पहले ऊपर और नीचे फैलना आरंभ किया (जो यह दर्शाता है कि वह केंद्रित वस्तु फिर एक ब्रह्मांडीय स्तंभ के रूप में आकार लेने लगी) और फिर यह अपने चारों ओर फैलने लगी। यह लिंगोद्भव अध्याय में भी कहा गया है जो लिंग तथा शिव पुराण में वर्णित है।
शिव पुराण विद्येश्वर संहिता के पांचवें अध्याय में सनत कुमार जी नंदिकेश्वर जी से पूछते हैं कि पूर्वकाल में लिंग बेर अर्थात मूर्ति की उत्पत्ति के संबंध में विस्तार से बताइए। नंदिकेश्वर ने बताया कि प्राचीन काल में एक बार ब्रह्मा जी और विष्णु जी के मध्य युद्ध हुआ, तो उनके बीच स्तम्भ रूप में शिवजी प्रकट हो गए। इस प्रकार उन्होंने पृथ्वीलोक का संरक्षण किया। उसी दिन से महादेव जी का लिंग के साथ मूर्ति पूजन भी प्रचलित हो गया। अन्य देवताओं की साकार अर्थात मूर्ति पूजा होने लगी, जो कि अभीष्ट फल प्रदान करने वाली थी। परंतु शिवजी के लिंग और मूर्ति, दोनों रूप ही पूजनीय हैं।
लिंग पुराण उत्तर भाग अध्याय 46 में देवी सरस्वती सुतजी और मुनियों से कहती हैं कि यह सब लोग लिंग में प्रतिष्ठित हैं, इसलिए सबको त्याग कर लिंग की पूजा करनी चाहिए। उपेंद्र, ब्रह्मा, इंद्र, यम, वरुण, कुबेर, तथा और भी देवता लिंग मूर्ति महेश्वर की स्थापना करके अपने-अपने स्थानों में पूजा करते हैं।
ब्रह्मा, हर, विष्णु, देवी, लक्ष्मी, धृति, प्रज्ञा, धरा, दुर्गा, शची, रुद्र, वसु, स्कन्ध, विशाख, नैगमेष, लोकपाल, गृह, नंदी से लेकर सभी गण, गणपति, पितर, मुनि, कुबेर आदि, साख्य, अश्वनी कुमार, विश्वेदेवा, साध्य, पशु, पक्षी, मृग, ब्रह्मा से लेकर स्थावर तक सब लिंग में प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए सबको त्यागकर अव्यय लिंग की स्थापना करनी चाहिए। मंत्र से स्थापित लिंग में पूजा करने पर सबकी पूजा हो जाती है।
लिंग पुराण उत्तर भाग अध्याय 47 में यह वर्णित है कि लिंग की वेदी साक्षात उमा देवी हैं और लिंग साक्षात महेश्वर हैं। इसीलिए देवी के साथ ही देवेश की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु वास करते हैं।
योगशिखा उपनिषद कहती है,
“यह लिंगम स्वयं सृजनकर्ता और सृजन है।”
अगर आप शिवलिंग को ध्यान से देखें, तो आपको लिंगम के नीचे दो स्तर मिलेंगे, जिन पर मुख्य लिंगम टिका हुआ है।
शिवलिंग के नीचे ये स्तर क्यों हैं? इनका क्या महत्व है?
उत्तर शिवलिंग के पास ही है, और वह है शिव का त्रिशूल। त्रिशूल तीन गुणों का प्रतीक है – 1. सत्व, 2. रज, और 3. तम। इन तीन गुणों से लिंगम का आधार बना है:
आधार या भूमि भाग: यह सत्वगुणी भाग है, जहाँ भगवान ब्रह्मा निवास करते हैं। यह उस शांति को दर्शाता है, जो तब मिलती है जब कोई व्यक्ति भगवान की शरण में रहता है और उनके मार्ग का अनुसरण करता है।
ऊपरी स्तर या पीठम: यह भगवान विष्णु का राजोगुणी स्थान है, जो यहाँ रहकर सृष्टि और सृजन की रक्षा करते हैं। यह स्तर एक जल निकासी व्यवस्था को दर्शाता है, जो भगवान विष्णु की मुक्ति प्रदान करने की क्षमता को इंगित करता है। यहाँ पानी जीवन का प्रतीक है, और उसका प्रवाह इस बात का संकेत है कि भगवान के मार्ग पर चलने से मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
ये दोनों भाग मिलकर ‘प्रकृति भाग’ कहलाते हैं, जो माता दुर्गा को इंगित करता है। यह दर्शाता है कि हमारी प्रकृति हमें अपने अंदर समेटे रहती है।
रुद्र भाग: यह तामसिक भाग है, जहाँ पुरुष अर्थात (परमात्मा) का निवास होता है। लिंग पुराण के अनुसार, शिव इस भाग में समाधि में होते हैं, जो सर्वोच्च ध्यान की अवस्था है, और यहाँ वे शांत शंभु के रूप में विद्यमान रहते हैं।
शिवलिंग और योग शास्त्र: शिवलिंग योगशास्त्र का भी एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह ‘सुषुम्ना’ नाड़ी का प्रतीक है, जो जीवों के अंदर की संवेदना है। शिवलिंग में कुंडलिनी के सात चक्र पूरी तरह से सक्रिय रहते हैं, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से जागृत करते हैं और मन में शांति लाते हैं।
यह विवरण इस ओर इशारा करता है कि शिवलिंग न केवल आध्यात्मिक जागरूकता का प्रतीक है, बल्कि सृष्टि और जीवन की गूढ़ ऊर्जा का भी रूप है।
वह साकार अर्थात (सकल) भी हैं क्योंकि उनका एक शरीर रूप भी है। वह दोनों हैं — सकल (साकार) और निष्कल अर्थात (निर्गुण/निर्विकार) भी। उनके निष्कल रूप में शिवलिंग उपयुक्त प्रतीक है, क्योंकि यह उनके निराकार स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है।
शिव का सकल रूप उनके सगुण और साकार रूप को दर्शाता है, जिसमें वे इस संसार में विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं। जबकि, निष्कल रूप में वे निर्गुण और निराकार रहते हैं, जहाँ उनका कोई भौतिक रूप नहीं होता। इस प्रकार, शिवलिंग शिव के उस निराकार, अनंत और सर्वव्यापी स्वरूप का प्रतीक है, हर हर महादेव