Who is Hayagriva | कौन है हयग्रीव

आखिर भगवान विष्णु ने क्यों धारण किया था Hayagriva Avatar, कितना शक्तिशाली था घोड़े के समान रूप रखने वाला नारायण का Hayagriva Avatar, Hindu Dharma में इस प्रकार के विचित्र अवतार बहुत ही कम देखने को मिलते हैं, आइये विस्तार से जानते है इस अद्भुत हयग्रीव अवतार के बारे में

भगवान विष्णु ने क्यों धरा था Hayagriva Avatar

महाभारत के शांतिपर्व अध्याय 347 के अनुसार , पूर्वकाल में जब इस पृथ्वी का एकार्णव के जल में लय हो गया। उस समय सब ओर केवल अन्धकार ही अन्धकार छा गया। उसके सिवा और कुछभी जान नहीं पड़ता था। तब तम से जगत् का कारणभूत ब्रह्म जी प्रकट हुए ।उस समय भगवान श्रीहरि ने योगनिद्रा का आश्रय लेकर जल में शयन किया

उस समय वे नाना गुणों से उत्पन्न होने वाली जगत् की अद्भुत सृष्टि के विषय में विचार करने लगे। सृष्टि के विषय में विचार करते हुए उन्हें अपने महत्तत्त्व ( महत्-तत्व) का स्मरण हो आया। उससे अहंकार प्रकट हुआ। वह अहंकार ही चार मुखों वाले ब्रह्माजी हैं,

मधु और कैटभ की उत्पत्ति

वे अद्भुत रूपधारी भगवान ब्रह्मा सहस्र दल कमल पर विराजमान हो जब इधर-उधर दृष्टि डालने लगे, वे जिस कमल पर बैठे थे, उसके ऊपर पहले से ही भगवान नारायण की प्रेरणा से जल की बूँदें पड़ी थीं, जो रजोगुण और तमोगुण की प्रतीक थीं। आदि-अनंत से रहित भगवान अच्युत ने उन दोनों बूँदों की ओर देखा। उनमें से एक बूँद भगवान की दृष्टि पड़ते ही तमोमय मधु नामक दैत्य के आकार में परिणत हो गयी। जल की दूसरी बूँद, नारायण की आज्ञा से रजोगुण से उत्पन्न कैटभ नामक दैत्य के रूप में प्रकट हुई।

मधु कैटभ द्वारा वेदों का हरण

तमोगुण और रजोगुण से युक्त वे दानों श्रेष्ठ दैत्य मधु और कैटभ बड़े बलवान थे। वे अपने हाथों में गदा लिये आगे बढ़ने लगे। ऊपर जाकर उन्होंने कमल-पुष्प के आसन पर बैठे ब्रह्माजी की देखा एवं उनके पास ही मनोहर रूप धारण किये हुए चारों वेदों को देखा। उन असुरों ने उस समय वेदों पर दृष्टि पड़ते ही उन्हें ब्रह्माजी के देखते-देखते सहसा हर लिया। सनातन वेदों का अपहरण करके वे दोनों दानव उत्तर-पूर्ववर्ती महासागर में घुस गये और तुरंत रसातल में जा पहुँचे। वेदों का अपहरण हो जाने पर ब्रह्माजी को बड़ा खेद हुआ। उनपर मोह छा गया। वे वेदों से वंचित होकर मन-ही-मन परमात्मा से इस प्रकार कहने लगे।

ब्रह्मा बोले – भगवन्! वेद ही मेरे उत्तम नेत्र हैं, वेद ही मेरे परम बल हैं। वेद ही मेरे परम आश्रय तथा वेद ही मेरे सर्वोत्तम उपास्य देव हैं। मेरे वे सभी वेद आज दो दानवों ने बलपूर्वक यहाँ से छीन लिये हैं। अब वेदों के बिना मेरे लिये सम्पूर्ण लोक अन्धकारमय हो गये हैं। मैं वेदों के बिना संसार की उत्तम सृष्टि कैसे कर सकता हूँ , तदन्तर भगवान ब्रह्मा ने हाथ जोड़कर उत्तम स्त्रोत का गान आरम्भ किया और भगवान नारायण की स्तुति गाने लगे

भगवान विष्णु ने कैसे लिया Hayagriva Avatar

विष्णु जी के हयग्रीव अवतार की कथा

ब्रह्मा जी के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान नारायण ने उसी क्षण निद्रा त्याग दी और वे वेदों की रक्षा करने के लिये उद्यत हो गये। उन्होंने अपने ऐश्वर्य के योग से दूसरा शरीर धारण किया, जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान् था। सुन्दर नासिका वाले शरीर से युक्त हो वे प्रभु घोड़े के समान गर्दन और मुख धारण करके स्थित हुए। उनका वह शुद्ध मुख सम्पूर्ण वेदों का आलय था। नक्षत्रों और ताराओं से युक्त स्वर्गलोक उनका सिर था। सूर्य की किरणों के समान चमकीले बड़े-बड़े बाल थे। आकाश और पाताल उनके कान थे एवं समस्त भूतों को धारण करने वाली पृथ्वी ललाट थी। गंगा और सरस्वती उनके नितम्ब तथा दो समुद्र उनकी दोनों भौंहें थे। इस प्रकार अनेक मूर्तियों से आवृत्त हयग्रीव रूप धारण करके वे जगदीश्वर श्रीहरि वहाँ से अन्तर्धान हो गये और रसातल में जा पहुंचे। रसातल में प्रवेश करके वे आदि स्वरों से युक्त उच्च स्वर से सामवेद का गान करने लगे।
नाद और स्वर से विशिष्ट सामगान की वह मधुर ध्वनि रसातल में सब ओर फैल गयी, जो समस्त प्राणियों के लिये गुणकारक थी। उन दोनों असुरों ने वह शब्द सुनकर वेदों को कालपाश से आबद्ध करके रसातल में फेंक दिया और स्वयं उसी ओर दौड़े जिधर से वह ध्वनि आ रही थी।। इसी बीच में हयग्रीव रूपधारी भगवान श्रीहरि ने रसातल में पड़े हुए उन वेदों को ले लिया तथा ब्रह्माजी को पुनः वापस दे दिया और फिर वे अपने आदि रूप में आ गये। भगवान ने महासागर के पूर्वोत्तर भाग में वेदों के आश्रयभूत अपने हयग्रीव रूप की स्थापना करके पुनः पूर्वरूप धारण कर लिया। तब से Bhagwan Hayagriva वहीं रहने लगे

हयग्रीव ने किया मधु कैटभ का अंत

इधर वेदध्वनि के स्थान पर आकर मधु और कैटभ दोनों दानवों ने जब कुछ नहीं देखा, तब वे बड़े वेग से फिर वहीं लौट आये, जहाँ उन वेदों को नीचे डाल रखा था। वहाँ देखने पर उन्हें वह स्थान सूना ही दिखायी दिया। तब वे दोनों दानव पुनः रसातल से शीघ्र ही ऊपर उठे और ऊपर आकर देखते हैं तो वे ही आदिकर्ता भगवान पुरुषोत्तम दृष्टिगोचर हुए। वे उस समय अनिरुद्ध-विगह में स्थित थे और वे भगवान योगनिद्रा का आश्रय लेकर सो रहे थे।। उन्हें देखकर वे दोनों दानवराज ठहाका मारकर जोर-जोर से हँसने लगे और कहने लगे, ‘यह जो पुरुष निद्रा में निमग्न होकर सो रहा है, निश्चय ही इसी ने रसातल से वेदों का अपहरण किया है। यह किसका पुत्र है ? कौन है ? और क्यों यहाँ सर्प के शरीर की शय्या पर सो रहा है ?’ इस प्रकार बातचीत करके उन दानों ने भगवान को जगाया। उन्हें युद्ध के लिय उत्सुक जान भगवान पुरुषोत्तम जाग उठे। फिर तो उन दोनों असुरों का और भगवान नारायण का युद्ध आरम्भ हुआ। भगवान मधुसूदन ने ब्रह्माजी का मान रचाने के लिये तमोगुण और रजोगुण से आविष्ट शरीर वाले उन दोनों दैत्यों – मधु और कैटभ को मार डाला।। इस प्रकार वेदों को वापस लाकर और मधु-कैटभ का वध करके भगवान पुरुषोत्तम ने ब्रह्माजी का शोक दूर कर दिया। ततपश्चात् वेद से समानित और भगवान से सुरक्षित होकर ब्रह्माजी ने समस्त चराचर जगत् की सृष्टि की। ब्रह्माजी को लोक-रचना की श्रेष्ठ बुद्धि देकर भगवान नारायणदेव वहीं अन्तर्धान हो गये।श्रीहरि ने इस प्रकार हयग्रीवरूप धारण करके उन दोनों दानवों का वध किया था। भगवान का यह वरदायक रूप पुरातन एवं पुराण-प्रसिद्ध है। जो ब्राह्मण प्रतिदिन इसा अवतार-कथा को सुनाता या स्मरण करता है, उसका अध्ययन कभी नष्ट (निष्फल) नहीं होता है। महादेवजी के बताये हुए मार्ग पर चलकर उग्र तपस्या द्वारा भगवान हयग्रीव की आराधना करके पांचाल देशीय गालव मुनि ने वेदों का क्रमविभाग प्राप्त किया था

देवी भागवत में हयग्रीव कथा भिन्न है

देवी भागवत पुराण प्रथम स्कन्द अध्याय 5 में हयग्रीव अवतार की कथा थोड़ी भिन्न है, और यह कल्प भेद के कारण होता है, इसके अनुसार प्राचीन काल में महाबाहु हयग्रीव नाम वाला एक दानव था , वह दैत्य आहार त्यागकर समस्त इंद्रियों को वश में करके देवी के माया बीजात्मक एकाक्षर मंत्र (ह्री) का हजारों वर्षों तक जप करता रहा , उससे प्रसन्न होकर देवी ने उसे वर मांगने को कहा , तब उस दानम ने पहले तो अमरता का वरदान ही मांगा , जब देवी से वर प्राप्त न हुआ तो उस दानव ने मांगा के के मेरी मृत्यु हयग्रीव से ही हो , किसी अन्य से नहीं , भविष्य में आगे एक समय लक्ष्मी जी के श्राप के कारण भगवान विष्णु जी मस्तक धड़ से अलग होकर कहीं लुप्त हो गया , उस समय त्वष्टा ने एक मनोहर अश्व का सिर अलग करके , सिरविहीन विष्णु जी के धड़ पर संयोजित कर दिया , तत्पश्चात देवताओं के कल्याण के भगवान विष्णु ने हयग्रीव रूप में उस पापात्मा , अत्यंत क्रूर दानव हयग्रीव का संहार किया था , इस मनोहर कथा को आप स्वयं देवी भागवत में पढ़ सकते हैं , जय श्री हरी