बलराम जी ने महाभारत युद्ध क्यों नहीं लड़ा | Why didn’t Balram participate in the Mahabharat War ?

बलराम जी

शक्ति और बल के प्रतीक बलराम जी, श्री कृष्ण के बड़े भाई थे, बाल अवस्था से लेकर युवा होने तक न जाने कितने युद्ध उन्होने श्री कृष्ण के साथ मिलकर लड़े, कितने ही राक्षसों, दैत्यों एवं पापियों का नाश इन दोनों ने मिलकर ही किया था, फिर क्या कारण था जो बलराम जी कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग लेने तक नहीं आए , कहाँ थे वह, जब युद्ध चल रहा था, क्या उन्हे किसी का भय था ? आइये जानते हैं

बलराम का स्वभाव

बलराम जी बड़े ही सीधे और शांत स्वभाव के थे ,कभी कभी वह श्री कृष्ण के जटिल तर्कों को समझ नहीं पाते थे लेकिन फिर भी वह सदैव अपने छोट्टे भाई की हर बात से सहमत रहते थे, बलराम जी शीग्र ही क्रोधित हो जाते थे और शत्रु पे बिना सोचे ही टूट पड़ते थे और वहीं श्री कृष्ण अधिकतर समय शत्रु की कमजोरी का लाभ उठा के ही उस का अंत करते थे

बलराम जी को दुर्योधन अधिक प्रिय थे

बलराम जी भीम और दुर्योधन, दोनों के ही गुरु थे, हालांकि महाभारत में वर्णित हैं के बलराम को दुर्योधन अधिक प्रिय थे और वह दुर्योधन को भीम से अपेक्षाकृत अधिक कुशल योद्धा मानते थे, क्यूंकी भीम का केंद्र सर्वदा शारीरिक बल पर ही रहा और वहीं दुर्योधन के पास गदा युद्ध में अधिक कौशल था, और यही चीज़ दुर्योधन की बलराम को पसंद थी, हरिवंश पुराण के अनुसार दुर्योधन की बेटी लक्षमना का विवाह श्री कृष्ण के पुत्र सांब से हुआ था


बलराम जी ने आरंभ से ही एक ऐसी छवि प्रस्तुत की थी के वह कौरव एवं पांडव पक्षों को समान रूप से देखते हैं और दोनों ही पक्ष उनको प्रिय हैं , परंतु ऐसा जान नहीं पड़ता था , दुर्योधन के इतना अभिमानी होने कारण जितना कर्ण , भीष्म और द्रोण थे उतने ही बलराम भी थे

बलराम ने युधिष्ठिर को ही द्यूत का दोषी ठहराया था

महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 2 के अनुसार बलराम जी विराट सभा में बोले थे, युधिष्ठिर जूए का खेल नहीं जानते थे। इसीलिये समस्त सुहृदों ने इन्‍हें मना किया था, दूसरी ओर गान्धारराज का पुत्र शकुनि जूए के खेल में निपुण था। यह जानते हुए भी ये उसी के साथ बारंबार खेलते रहे।

इन्‍होंने कर्ण और दुर्योधन को छोड़कर शकुनि को ही अपने साथ जूआ खेलने के लिये ललकारा था। इसीलिये उस जूए में इनकी हार हुई। । इन्होंने हठपूर्वक खेल जारी रखा और अपने को हराया, इसमें शकुनि का कोई अपराध नहीं है, युद्ध में तो दोनों पक्ष की ओर से अन्याय अर्थात् अनीति का ही बर्ताव किया जाता है और अन्याय से इस जगत में किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती।

बलदेव जी इस प्रकार कह ही रहे थे कि सात्यकि सहसा खड़े हो गये। उन्होंने कुपित होकर बलभद्र जी के भाषण की कड़ी आलोचना की और बोले बोले, बलरामजी ! मनुष्य का जैसा हृदय होता है, वैसी ही बात उसके मुख से निकलती है। आपका भी जैसा अंत:करण है, वैसा ही आप भाषण दे रहे हैं,

महात्मा युधिष्ठिर जूआ खेलना नहीं चाहते थे, तो भी जूए के खेल में निपुण धूर्तों ने उन्हें अपने घर बुलाकर अपने विश्वास के अनुसार हराया अथवा जीता है। यह इनकी धर्मपूर्वक विजय कैसे कही जा सकती है? यदि भाईयों सहित कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर अपने घर पर जूआ खेलते होते और ये कौरव वहाँ जाकर उन्हें हरा देते, तो वह उनकी धर्मपूर्वक विजय कही जा सकती थी। परन्तु उन्होंने सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहने वाले राजा युधिष्ठिर को बुलाकर छल और कपट से उन्हें पराजित किया है। क्या यही उनका परम कल्याणमय कर्म कहा जा सकता है?

युद्ध से पहले बलराम और दुर्योधन की वार्ता

युद्ध से पूर्व जब दुर्योधन युद्ध में समर्थन हेतु आया था तब वहाँ श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा था के वह नारायणी सेना या मुझ में से किसी एक को चुन ले परंतु मैं ना तो युद्ध करूँगा और न कोई शस्त्र ही धारण करूँगा, तब दुर्योधन ने नारायणी सेना को चुना और अर्जुन ने श्री कृष्ण को, नारायणी सेना को पाकर और श्रीकृष्ण को ठगा गया समझकर दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई।और उसके उपरांत वह बलरामजी के पास गया और उसने उन्हें अपने आने का सारा कारण बताया। तब वहाँ बलराम जी ने दुर्योधन को इस प्रकार उत्तर दिया था ।

तुम्हारे लिये मैंने श्रीकृष्ण को बाध्य करके कहा था कि हमारे साथ दोनों पक्षो का समान रूप से सम्बन्ध है! राजन! मैंने यह बात बार-बार दुहरायी, परंतु श्रीकृष्ण-को जँची नहीं और मैं श्रीकृष्ण को छोड़कर एक क्षण भी अन्यत्र कहीं ठहर नहीं सकता। अतः मैं श्रीकृष्ण की ओर देखकर मन ही मन इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि मैं न तो अर्जुन की सहायता करूँगा और न दुर्योधन की ही। पुरुषरत्न! तुम भरत वंश में उत्पन्न हुए हो। जाओ, क्षत्रिय-धर्म के अनुसार युद्ध करो। बलभद्र जी के ऐसा कहने पर दुर्योधन ने उन्हें हृदय से लगाया और श्रीकृष्ण को ठगा गया जानकर युद्ध से अपनी निश्चित विजय समझ ली

युद्ध से पहले बलराम का पांडव शिविर में जाना

कुरुक्षेत्र युद्ध आरंभ होने से पहले भी बलराम जी पांडवों के शिविर में पहुंचे थे, उन्‍हें देखते ही धर्मराज युधिष्ठिर, श्रीकृष्ण, भयंकर कर्म करने वाले कुन्‍ती पुत्र भीमसेन तथा अन्‍य जो कोई भी राजा वहाँ विद्यमान थे, वे सबने उठकर बलरामजी को समादर किया और उन्‍हें प्रणाम किया। तत्‍पश्‍चात बलराम जी युधिष्ठिर के साथ बैठे। वहाँ बलराम जी ने भगवान श्रीकृष्‍ण की ओर देखते हुए कहा- जान पड़ता है यह महाभयंकर और दारुण नरसंहार होगा ही। प्रारम्‍भ के इस विधान को मैं अटल मानता हूँ। अब इसे हटाया नहीं जा सकता। ‘इस युद्ध से पार हुए आप सब सुहृदों को मैं अक्षत शरीर से युक्‍त और नीरोग देखूँगा। ऐसा मेरा विश्‍वास है

इसमें संदेह नहीं कि यहाँ महान जनसंहार होने वाला है। मैंने एकान्‍त में श्रीकृष्‍ण से बार-बार कहा था कि मधुसूदन! अपने सभी सम्‍‍बन्धियों के प्रति एक-सा बर्ताव करो; क्‍योंकि हमारे लिये जैसे पाण्‍डव हैं, वैसा ही राजा दुर्योधन है। उसकी भी सहायता करो। वह बार-बार अपने यहाँ चक्‍कर लगाता है।


परंतु युधिष्ठिर! तुम्‍हारे लिये ही मधुसुदन श्रीकृष्‍ण ने मेरी उस बात को नहीं माना है। ये अर्जुन को देखकर सब प्रकार से उसी पर निछावर हो रहे हैं।
मेरा निश्चित विश्‍वास है कि इस युद्ध में पाण्‍डवों की अवश्‍य विजय होगी। भारत! श्रीकृष्‍ण का भी ऐसा दृढ़ संकल्‍प है।
मैं तो श्रीकृष्‍ण के बिना इस सम्‍पूर्ण जगत की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता; अत: ये केशव जो कुछ करना चाहते है, मैं उसी का अनुसरण करता हूँ।


भीमसेन और दुर्योधन ये दोनों ही वीर मेरे‍ शिष्‍य एवं गदा युद्ध में कुशल हैं; अत: मैं इन दोनों पर एक-सा स्‍नेह रखता हूँ।
इसलिये मैं सरस्‍वती नदी के तटवर्ती तीर्थों का सेवन करने के लिये जाऊँगा। क्‍योंकि मैं नष्‍ट होते हुए कुरुवंशियों को उस अवस्‍था में देखकर उनकी उपेक्षा नहीं कर सकूँगा
ऐसा कहकर महाबाहु बलरामजी पाण्‍डवों से विदा ले मधुसूदन श्रीकृष्‍ण को संतुष्‍ट करके तीर्थ या‍त्रा के लिये चले गये।

बलराम जी का चरित्र

बलराम जी बड़े ही विमूढ़ प्रवृति के थे, एक तरफ जहां उन्होने स्वयं क्रोध में भरकर एक क्षण में रुकमी का वध भरे दरबार में कर दिया जो उनके नातेदार ही थे, और वहीं पांडवों को कौरवों से युद्ध न करने का उपदेश दे रहे थे जिनहोने दुर्योधन एवं अन्य कौरवों के हाथों इतना निरादर सहा था और अपना सब कुछ गवा बैठे थे, और एक समय वह कौरवों पर इतने क्रोधित हो गए थे के स्वयं हस्तीनपुर पर आक्रमण कर कौरवों को दंडित करना चाहते थे |

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आप जितना अधिक इनका अध्ययन करेंगे उतना ही इनको समझ पाना कठिन हो जाता है , इसके अतिरिक्त बलराम जी का कुरुक्षेत्र युद्ध में भाग न लेने यह भी कारण हो सकता है के श्री कृष्ण का पांडवों के लिए अपार स्नेह था , बेशक बलराम जी बोले थे के उनको कौरवों और पांडवों से समान स्नेह है परंतु जगह जगह पर उन्होने दुर्योधन का अप्रत्यक्ष रूप से साथ दिया था शायद इसी असमंजस तथा श्री कृष्ण के प्रति उनकी श्रद्धा ने उन्हे युद्ध से दूर रखा

युद्ध के अंत में बलराम जी आगमन और दुर्योधन के प्रति उनका स्नेह

कुरुक्षेत्र युद्ध के अंत में जब भीम ने दुर्योधन को पराजित कर दिया था तो बलराम क्रोधित होकर बोले थे , ‘श्रीकृष्ण! राजा दुर्योधन मेरे समान बलवान था। गदायुद्ध में उसकी समानता करने वाला कोई नहीं था। यहाँ अन्याय करके केवल दुर्योधन नहीं गिराया गया है, (मेरा भी अपमान किया गया है)। ऐसा कहकर महाबली बलराम अपना हल उठाकर भीमसेन की ओर दौडे़। उस समय श्रीकृष्ण ने रोष से भरे हुए बलराम जी को शान्त करते हुए से कहा- ‘भैया आप संसार में क्रोधरहित, धर्मात्मा और निरन्तर धर्म पर अनुग्रह रखने वाले सत्पुरुष के रूप में विख्यात हैं; अतः शान्त हो जाइये, क्रोध न कीजिये। समझ लीजिये कि कलियुग आ गया।

पाण्डुपुत्र भीमसेन की प्रतिज्ञा पर भी ध्यान दीजिये, भगवान श्रीकृष्ण से यह विवेचन सुनकर बलदेव जी के मन को संतोष नहीं हुआ और वे भरी सभा में बोले, राजा दुर्योधन को अधर्मपूर्वक मारकर पाण्डुपुत्र भीमसेन इस संसार में कपटपर्ण युद्ध करने वाले योद्धा के रूप में विख्यात होंगे, दुर्योधन सरलता से युद्ध कर रहा था, उस अवस्था में मारा गया है; अतः वह सनातन सद्गति को प्राप्त होगा, ऐसा कहकर वह वहाँ से चले गए थे , यह वृतांत पुनः उनके दुर्योधन के प्रति उनके स्नेह को ही दर्शाता है