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गरुड़ और नाग क्यों हैं दुश्मन | Why Garuda is enemy of Nagas ?
गरुड़ और नाग कैसे बने एक दूसरे के शत्रु, गरुड़ देव जिनके डर से अति बलशाली कालिया नाग यमुना के तल में जा छुपा था, उनसे टकराने से वासुकि भी घबराते थे, वो जिनहोने श्री राम और लक्ष्मण जी को नागपाश से क्षण भर में मुक्त करा लिया था, उन गरुड देव जी की आखिर ऐसी क्या शत्रुता थी समस्त नागों से, क्यों सारे नाग भी उन्हे अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते थे, कैसे हुई गरुड़ और नाग जाती की दुश्मनी आइये जानते हैं
गरुड़ और नाग जाती का जन्म
महाभारत के आदि पर्व अध्याय 16 के अनुसार, सतयुग काल में दक्ष प्रजापति की दो कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप से हुआ था, उनका नाम कदरू और विनता था,
कश्यप जी से वरदान में कदरू ने एक हज़ार नाग, पुत्र स्वरूप प्राप्त मांगे और विनता ने 2 ऐसे पुत्र मांगे जो कदरू के सभी पुत्रों से शक्तिशाली हों, कदरू को तो 1000 पुत्र प्राप्त हो गए , परंतु विनता के अंडों से उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखाई दिये, इससे विनता अपनी सौत के सामने लज्जित हो गयी
और उसने एक अंडा स्वयं ही फोड़ डाला, अंडे से जो उसका पुत्र उत्पन्न हुआ उसका ऊपर का अंग तो विकसित हो गया था पर नीचे का अंग अभी अधूरा ही रह गया था, पुत्र ने क्रोध में आकार विनता को श्राप दिया के माँ तुमने लोभ के वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीर का बना दिया , इसीलिए तू उसी सौत की पाँच सौ वर्षों तक दासी बनी रहेगी, और जो यह दूसरे अंडे में तेरा पुत्र है वही तुझे दासी भाव से छुटकारा दिलाएगा
कुछ समय बाद महातेजस्वी गरुड़ माता की सहायता के बिना ही अण्डे को फोड़कर बाहर निकल आये। वे अपने तेज से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें इच्छानुसार रूप धारण करने की शक्ति थी। वे जहाँ जितनी जल्दी जाना चाहें जा सकते थे और अपनी रुचि के अनुसार पराक्रम दिखला सकते थे। उनका प्राकट्य आकाशचारी पक्षी के रूप में हुआ था।
गरुड़ और नाग की माताओं कदरू और विनता की शर्त
एक समय की बात है कदरू और विनता ने एक सुंदर अश्व को देखा जो समुद्र मंथन से उत्पन्न हुआ था, उसे देख कदरू ने विनता से कहा के बताओ ज़रा यह अश्व किस रंग का है, विनता बोली यह अश्व श्वेत रंग का है, तब कदरू बोली हो सकता है यह अश्व का रंग सफ़ेद हो, परंतु इसकी पुंछ को मैं काले रंग की मानती हूँ, विनता बोली इसकी पुंछ भी सफ़ेद है,
तब कदरू बोली आओ दासी होने की शर्त रखकर मेरे साथ बाज़ी लगाओ, यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं दासी बनकर रहूँगी, अन्यथा तुम्हें मेरी दासी बनना होगा, तब कदरू ने षड्यंत्र रचा और अपने सर्प पुत्रों की सहायता ली, वे सर्प रंग बदलकर उस अश्व के पुंछ से लिपट गए , जिस कारण विनता कदरू से शर्त हार गयी और उसे दासी बनना पड़ा
गरुड़ द्वारा माता विनता को दासता से मुक्ति
कुछ समय उपरांत गरुड ने अपनी माँ से पूछा के, आप और मैं इन सर्पों की आज्ञा का पालन क्यों करती हैं, तब विनता ने गरुड को सब बताया, तब गरुड़ इस ग़ुलामी से मुक्त होने के लिए नागों के पास गए और उनसे पूछा के बताओ मैं तुम्हारे लिए ऐसा क्या करूँ के मैं और मेरी माँ तुम्हारे दास न रहें, नाग बोले ‘गरुड़! तुम पराक्रम करके हमारे लिये अमृत ला दो। इससे तुम्हें दास्यभाव से छुटकारा मिल जायेगा
गरुड़ का अमृत लेने जाना और देवताओं से युद्ध और उनका विष्णु का वाहन बनना
तब गरुड अमृत लेने के लिए इन्द्र लोक पहुँच गए । इन्द्र के कहने पर समस्त देवतागन अमृत को चारों और से घेरकर खड़े हो गए । देवराज इन्द्र भी हाथ में वज्र लेकर वहाँ डट गये।
उसी समय पक्षिराज गरुड़ तुरन्त ही देवताओं के पास जा पहुँचे। उन अत्यन्त बलवान गरुड़ को देखकर सम्पूर्ण देवता काँप उठे। गरुड़ ने वहाँ वहाँ समस्त देवों को , वसुओं को, गन्धर्वों को, रुद्रों को, यक्षों को, तथा अश्विनी कुमारों को अकेले ही पराजित कर दिया, अमृत की रक्षा के लिये ही दो श्रेष्ठ सर्प नियुक्त किये गये थे। गरुड़ ने उन दोनों ने वेगपूर्वक आक्रमण करके उन दोनों सर्पों के शरीर को बीच से काट डाला; फिर वे अमृत की ओर झपटे और अमृत के पात्र को उठाकर बड़ी तेजी के साथ वहाँ से उड़ चले
गरुड़ और इन्द्र देव का युद्ध
अभी गरुड थोड़ा आगे बड़े ही थे के इन्द्र उनके सामने आ गए , और उन्होने अपना वज्र गरुड पर चला दिया, उस वज्र का गरुड पर ज़रा सा भी असर नहीं हुआ और वह विफल हो गया ,
इन्द्र ने मन-ही-मन विचार किया, यह पक्षीरूप में कोई महान् प्राणी है, ऐसा सोचकर उन्होंने गरुड देव से कहा। विहंगप्रवर! मैं तुम्हारे सर्वोत्तम उत्कृष्ट बल को जानना चाहता हूँ और तुम्हारे साथ ऐसी मैत्री स्थापित करना चाहता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो। तब उन दोनों की मित्रता हो गयी ,
वहाँ इन्द्र , गरुड से बोले , मित्र अगर तुम यह अमृत उन सर्पों को दे दोगे तो वह हमें ही कष्ट पहुंचाएंगे , तब गरुड ने कहा के अभी यह अमित मैं ले जाता हूँ , इसे किसी को पीने के लिए नहीं दूँगा , मैं स्वयं जहां इसे रख दूँ तुम तुरंत इसे वहाँ से उठा लेना ,
इन्द्र देव का गरुड़ को वरदान, गरुड़ और नाग की शत्रुता
ऐसी बात सुन इन्द्र इतने प्रसन्न हुए के उन्होने गरुड़ से कहा , जो चाहे वर मांग लो , तब इन्द्र के ऐसा कहने पर गरुड़ को कद्रूपुत्रों की दुष्टता का स्मरण हो आया। साथ ही उनके उस कपटपूर्ण बर्ताव की भी याद आ गयी, जो माता को दासी बनाने में कारण था। अतः उन्होंने इन्द्र से कहा- ‘इन्द्र! यद्यपि मैं सब कुछ करने में समर्थ हूँ, तो भी तुम्हारी इस याचना को पूर्ण करूँगा कि अमृत दूसरों को न दिया जाये। साथ ही तुम्हारे कथनानुसार यह वर भी माँगता हूँ कि महाबली सर्प मेरे भोजन की सामग्री हो जायँ।
गरुड़ का अमृत लेकर सर्पों के पास जाना
इसके उपरांत अमृत लेकर वह अपनी माता के समीप पहुंचे , वह समस्त सर्पों से बोले- ! मैंने तुम्हारे लिये यह अमृत ला दिया है। अमृत के लिये भेजते समय तुमने यहाँ बैठकर मुझसे जो बातें कही थीं, वो मैंने पूर्ण कर दी, उनके अनुसार आज से मेरी ये माता दासीपन से मुक्त हो जायें, अब शीग्र जाओ और स्नान कर लो फिर इस अमृत का पान करो
इसी बीच में इन्द्र वह अमृत लेकर पुनः स्वर्ग लोक को चले गये। इसके अनन्तर अमृत पीने की इच्छा वाले सर्प स्नान, करके उस स्थान पर आये, जहाँ कुश के आसन पर अमृत रखा गया था। आने पर उन्हें मालूम हुआ कि कोई उसे हर ले गया। । फिर यह समझ कर कि यहाँ अमृत रखा गया था, इसलिये सम्भव है इसमें उसका कुछ अंश लगा हो, सर्पों ने उस समय कुशों को चाटना शुरू किया। ऐसा करने से सर्पों की जीभ के दो भाग हो गये।
इस प्रकार महात्मा गरुड़ ने देवलोक से अमृत का अपहरण किया और सर्पों के समीप तक उसे पहुँचाया; साथ ही सर्पों को द्विजिह्व (दो जिह्वाओं से युक्त) बना दिया। उस दिन से गरुड़ अत्यन्त प्रसन्न हो अपनी माता के साथ रहकर वहाँ वन में इच्छानुसार घूमने फिरने लगे। वे सर्पों को खाते और पक्षियों से सादर सम्मानित होकर अपनी उज्ज्वल कीर्ति चारों ओर फैलाते हुए माता विनता को आनन्द देने लगे, और इस प्रकार गरुड़ और नाग जाती की शत्रुता आगे बढ़ती रही